Tuesday, May 12, 2009

जनसांस्कृतिक आंदोलन के बदलते संदर्भ और सृजनात्मक चुनौतियां

सन् 1982 83 से भारतीय समाज में व्यापक बदलाव दिखाई पड़ रहा है। इस बदलाव का नतीजा ये है कि पहले जो आंदोलन जनता के पक्ष में हुआ करते थे वो अब लगभग बंद हो गये हैं। बहुत से अंादोलन अब होते ही नहीं हैं या महज औपचारिकता रह गये हैं। नए मुद्दों पर आंदोलन खडे़ होते दिखते नहीं। जो आंदोलन हो रहे हैं वो ना तो जन सांस्कृतिक आंदोलन का हिस्सा हैं और न हो सकते हैं। पर इन बेहूदे आंदोलनों की उपस्थिति से इंकार नहीं किया जा सकता। यह भी स्वीकार किया जाना चाहिए कि जो सामाजिक बदलाव हो रहे हैं उनके बारे में जागरूकता फैलाने में और उनकी व्याख्या हम लोगों तक नहीं पंहुचा रहे हैं। सामाजिक बदलावों का अच्छा अध्ययन भी शायद उपलब्ध नहीं है।
इन बदलावों को रेखांकित करें तो सर्वाधिक आक्रामक उपस्थिति टी वी और उसके चैनलों की है। इसके आने से आम भारतीय(यहां गांव के सर्वहारा की बात नहीं की जा रही है) के जीवन में व्यापक तब्दीली आई है। उसके समय का उपयोग, प्राथमिकताएं बदल गई हैं। टी वी की उपस्थिति एक अनिवार्य उपस्थिति हो गई है और उसका तोड़ केवल यही है कि आप भी अपनी बात कहने के लिए उसका उपयोग करें जो अभी तक नहीं कर पा रहे हैं। टी वी के चैनल लगातार जहर उगल रहे हैं और हम ये हलाहल पीने को मजबूर हैं। जरूरत है कि हमारे बीच के इस विधा के पारंगत लोग इस सृजनात्मक चुनौती को स्वीकार करें और जनता के बीच प्रमाणित करें कि हमारे विचार महत्वपूर्ण हैं। हमारे पास भी कहने को कुछ है।
आज काम के घंटे की बात बेमानी हो गई है। वो समय दूर नहीं है जब भारत में 1887 के समान ही एक खून से सना जुलूस निकले जिसमें आठ घंटे काम और 16 घंटे काम से मुक्ति की बात हो। शहरी पढ़ा लिखा युवा अच्छी तनखाह पर नौकरी तो पा रहा है लेकिन उसके पास अपने लिए और अपने परिवार के लिये कोई समय नहीं बचा है। यह स्थिति न केवल गैर सरकारी संस्थानों में है बल्कि इसी किस्म के सरकारी संस्थानों में है। लाखांे की संख्या में लोग इस शोषण का शिकार हैं और उनमें से अधिकांश को तो पता भी नहीं है कि वे शोषित हैं और उनकी मांग क्या होना चाहिए। एक जमाने में मेडिकल रिप्रेजें़टिव की नौकरी बहुत आकर्षक मानी जाती थी। बाद में इन लोगों ने सेवा शर्ताें के लिए लंबा संघर्ष किया। आज काल सेंटर, कम्प्यूटर साफ्टवेयर आदि नए क्षेत्रों में लाखांे लोग काम कर रहे हैं जिनकी कोई सेवा शर्तें नहीं हैं। सेवा शर्तों के अलावा इनका कोई जीवन नहीं है। इनकी पढ़ाई लिखाई जिस माहौल और जिस लक्ष्य को लेकर हुई है उसमें साहित्य, संगीत, सामाजिकता का कोई नाता नहीं है। यह भी चिंता का विषय है कि इनकी अगली पीढ़ी जो अगले दस बीस सालों में आएगी वो किस मानसिकता की होगी। हमारा तो इसी पीढ़ी से सरोकार नहीं हो पाया है तो अगली पीढ़ी से क्या होगा।
युवाओं के सोच में बड़ा परिवर्तन आया है। वो राजनीति से दूर हुआ। वो कमाई के प्रति बहुत सचेत हुआ है। वो संगीत में, फिल्मों में, अपनी पसंद व्यक्त कर रहा है। नृत्य की तो चर्चा न करना ही बेहतर है। दुखद है कि इस विकास के दौर में कोई ऐसी स्थिति नहीं बनी कि मजबूरी में ही सही साहित्य पढा़ जाए। स्कूली पढ़ाई मं मातृभाषा का विकल्प कम्प्यूटर कर दिया गया है। और बच्चे कम्प्यूटर को विकल्प के रूप में चुन रहे हैं।
जनसांस्कृतिक आंदोलन में और वामपंथी आंदोलन में युवाओं की निर्णायक भूमिका कम हो चुकी है। युवाओं की व्यस्तताएं अलग हैं और ये स्वीकार किया जाना चाहिए कि युवाआंे में हमारा हस्तक्षेप कम है। उनकी आज की समस्याओं से हम दो चार नहीं हैं। इसका परिणाम सृजन में दिखाई पड़ सकता है। यह भी एक सृजनात्मक चुनौती है।
जिस भाषा में हम सृजन कर रहे हैं उसके प्रति हम कितने सजग हैं। पूरा भारत एक झूठ पर जी रहा है कि पैदा हुए बच्चे को यदि अंग्रेजी न सिखाई गई तो उसका इस दुनिया में पैदा होना व्यर्थ है। बड़े बड़े शिक्षाविद्, समाजशास्त्री इसी निष्कर्ष पर पंहुचे हैं कि अच्छी शिक्षा का मतलब है बच्चों को उनकी मातृभाषा और परिवेश से मुक्त कर देना और तथाकथित अंग्रेजी सिखाना जो उन्हें कहीं का न रहने दे। सबसे हास्यास्पद स्थिति तो यह है कि हिन्दी का लेखक कविता कहानी हिन्दी में करता है पर आलोचना और चर्चा के लिए उसके पास हिन्दी में शब्द नहीं है। पूरी व्याख्या अंग्रेजी में होती है। ये हमारे सोच और जनआंदोलनों से जुड़ाव की बानगी है।
समय बदल रहा है। यह कहकर हम अपनी सुविधा का बदलाव देखते हैं। बदलाव तो बदलाव है चाहे हमें पसंद हो या न हो। पर बदलाव का अध्ययन और उसे जस का तस स्वीकार करके ही आगे बढ़ा जा सकता है। यही तो संदर्भों का अध्ययन है। पहले के संदर्भ तो हम जानते हैं पर आज के संदर्भ बहुत विश्लेषण की मांग करते हैं। इस संदर्भ में ये कहा जा सकता है कि साहित्य में, नाटक में नए संदर्भ उतनी तीक्ष्णता से आ नहीं रहे हैं जैसे आना चाहिए।नए नाटक कितने आए? नई कहानियां कितनी हैं जो उथल पुथल मचा दें ? ये भी जन सांस्कृतिक आंदोलन का बदलता संदर्भ है। मजदूर आंदोलन कमजोर हुआ है। संगठित मजदूरों की शक्ति घटी है। ये भी कहा जा सकता है कि जीवन स्तर ऊपर उठा है। इसीलिए इस वर्ग के जीवन संघर्ष के संदर्भ बदल गए हैं।
जन सांस्कृतिक आंदोलन का निशाना कौन है ? किसके लिए हम काम करना चाहते हैं और हम कौन हैं। हमारा वर्ग क्या है और हम किस वर्ग के लिए लड़ना चाहते हैं इसकी स्पष्ट समझ विकसित करना चाहिए। यह हमें अपने मूल्यांकन, संदर्भों और सृजन की चुनौतियों को स्पष्ट करने में मदद देगा। हमारी चिंता खेत मजदूर और गांव के अति शोषित मजदूर की है। पर हमारा कार्यक्षेत्र शहर का निम्न और मध्यम मध्यमवर्ग है। हम जिस वर्ग में काम कर रहे हैं उसी की समस्याओं और विकल्पों को ज्यादा बेहतर तरीके से समझ सकते हैं। इसीलिए बेहतर परिणाम के साथ काम कर सकते हैं। इसीलिए बीच बीच में अचानक कोई ऐसी कविता या कहानी हमारे बीच में कौंध जाती है जो हमें हमारी बात कहती नजर आती है।
अभी अभी शाहिद अनवर का नाटक बी 3 पढ़ा। नाटक वाले लोग सबसे पहले नाटक को इस दृष्टि से पढ़ते हैं कि वो हमारी बात कहता है या नहीं। और हम से करते बनेगा या नहीं। बी 3 की खासियत ये लगी कि ये अद्भुत सरलता से बहुत कठिन बात कहता है और नाटक करने लायक भी है। ये सृजनात्मक चुनौती है जिसे शाहिद अनवर ने स्वीकार किया। इस उदाहरण के साथ बात खत्म की जा सकती है ।
-हिमांशु राय

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