Tuesday, May 1, 2012


Tuesday, May 12, 2009

हमारा समय कैसा है ?

हमारा समय कैसा है ? हमारे इस समय से हम कितने प्रभावित हैं ? यदि ये समय खराब है तो इसे अच्छा समय बनाने की कोई जद्दोजहद चल रही है क्या ? यदि चल रही है तो क्या हम उसमें शामिल हैं ? या उससे दूर खड़े हैं या उसके विरूद्ध खड़े हैं ? समय के साथ एक खास बात ये है कि ये हमेशा खराब रहता है। हमेशा पहले का समय अच्छा रहता है बल्कि बहुत लोग कहते हैं कि पहले का समय तो स्वर्णयुग था। आज का समय किस धातु का है। आज का समय धातु का न होकर प्लास्टिक और बहुत से रसायनों का है। आज का समय नई नई मोटर कारों मोटर साइकिलों का है। अमेरिका भागते नौजवानों का है। बड़ी बड़ी तनख्वाहों पर बड़े बड़े उद्योगों को सम्हालते और बड़े बड़े मुनाफे कमाते उद्योगपतियों का है। काम के आठ घंटे की अवधारणा की समाप्ति का है। जीवन का आनंद भोगने की अवधारणा की समाप्ति का है। हमारा समय जन्मकुंडलियों, ग्रह दशाओं, वास्तु दोषों का है। ग्रामीण क्षेत्रों में आत्महत्याओं का है। शहरों में हत्याओं का है। धर्मध्वजा फहराते हिंसक जयघोषों का है। चित्र प्रदर्शनियों पर हमले का है। तस्लीमा के बार बार निष्कासन का है। मकबूल फिदा हुसैन के निर्वासन का है। यह समय अंग्रेजी का है। यह समय मातृभाषाओं और लोकभाषाओं की हत्या का है। यह समय सहज देसी आदमी की समाप्ति और एक कृ़ित्रम नकली आदमी के उद्भव का है। यह समय अटाटूट मंहगाई की मार झेल रहे गरीब का है। ये समय अटाटूट कमाई कर रहे कुछ अमीरों का भी है। यह समय छिछोरी फिल्मों और छिछोरे संगीत का है। यह समय शास्त्रीय कलाओं के जीवन संघर्ष का है। यह समय जबरदस्त साम्प्रदायिक तनाव का है। यह समय भयानक जातिवाद और उसके इस्तेमाल का है। यह समय आतंक और आतंक की रोकथाम के लिये किये जा रहे आतंक और अनाचार का है।
यह समय बाल श्रमिकों के शोषण का है। यह समय सभी श्रमिकों को उचित मजदूरी हासिल करने के लिये संघर्ष का है। यह समयगरीब के और गरीब होते जाने का है। यह समय दुनिया और देश को टी वी के माध्यम से देखने का है। कलाओं की दृष्टि से यह इसीलिये खराब समय है क्योंकि कलायें और साहित्य सबकुछ का माध्यम टी वी हो गया है। फिल्म एक बहुत सशक्त माध्यम है पर आजकल उसके अर्थशास्त्र पर कुछ ऐसा साया है कि अंकुर निशंात बनाने वाले श्याम बेनेगलनुमा लोग बहिष्कृत हैं। पहले भी बाजार था। आज भी है पर आज बाजार ही बाजार है। उसके अलावा कुछ नहीं है। इसीलिये अच्छी फिल्में नहीं बनती। अच्छा चैनल शुरू नहीं हो सकता और हो जाये तो चल नहीं सकता। एक तथाकथित टी आर पी है जो हमारा अच्छा देखना सुनना बंद किये दे रहा है। सोचने समझने वालों के लिये कोई चैनल नहीं है। सरकारी चैनल फूहड़ता में प्रतियोगिता करता है। जबकि वो निजी की फूहडता से जीत नहीं सकता। निजी की फूहडता अविजेय है।
जब हम कलाओं, साहित्य और रंगमंच की बात करते हैं तो हम हिन्दी की बात भी करते हैं। उस हिन्दी की बात करते हैं जो बहुत शीघ्र इतिहास की वस्तु होने जा रही है। हिन्दी की हत्या के हम सब साक्षी हैं। हिन्दी ही क्यों सभी देशी और प्रदेशी भाषाओं की हत्या के हम साक्षी हो रहे हैं। जब हम मातृभाषा या अपनी भाषा में काम कर रहे होते हैं तो दरअसल हम एक निष्फल व्यायाम में लगे रहते हैं। हम साहित्य की बात करते हैं। उस साहित्य की बात करते हैं जिसका पाठक वर्ग बेहद सिकुड़ गया है या कहा जाये कि लगभग समाप्त ही हो गया है। जब हम रंगमंच की बात करते हैं तो हम उस रंगमंच की बात करते हैं जिसका दर्शक वर्ग आबादी का बहुत नगण्य हिस्सा है।
आज राज्य संस्कृति के मामले में जितना निष्ठुर है उतना शायद ही कभी रहा हो। आज का उन्मादी समाज कलाओं का जैसा दुश्मन है वैसा शायद ही कभी रहा हो। ऐसे मंे उद्देश्यपूर्ण, सोद्देश्य सार्थक प्रतिबद्ध कलात्मक विचारशील विचारोत्तेजक इत्यादि किस्म के नाटक करना असंभव हो गया है। परसाई जी ने लिखा है कि कबीर अपने समय में काफी बड़े अखाडे़ के खलीफा रहे होंगे वरना हिन्दु मुसलमान दोनांे से दुश्मनी कर रचनाकर्म करना संभव नहीं होता। आज के समय में कबीर का कहीं पुतलादहन होता रहता या फिर वो किसी दूसरे देश में बैठकर राष्ट्र को संदेश दे रहे होते। उनके खिलाफ वारंट होते और हर शहर में मुकदमे दायर होते। सरकार कानून व्यवस्था के प्रति वचनबद्ध होती और हर नागरिक को देश के संविधान के अनुसार अपना जीवन भुगतने के लिये तैयार रहना होता। लोग कहते कि कबीर जी की सरकार रक्षा करे तो गृहमंत्री कहते कि हमारे हाथ संविधान से बंधे हैं। कोई भी आदमी संविधान से ऊपर नहीं है। कबीर अपनी रक्षा स्वयं करें। लिखने में संयम बरतें। सभी की भावनाओं का ख्याल रखें नहीं तो फिर पिटें हम क्या कर सकते हैं।
इन परिस्थितियों में देश में रंगकर्म हो रहा है। जैसा भी हो रहा है। वामपंथ की ऐसी कमर टूटी है कि सारे मजदूर आंदोलन का सत्यानाश हो गया है। वैचारिक तबाही दिल दहला देने वाली है। दर्शन पर बहस की गुंजाइश खत्म होती जा रही है। गरीब आज भी है मगर उसकी गरीबी का कारण बताने वाला कोई नहीं है। गरीब की गरीबी दूर करने का कोई दर्शन सामने नहीं आ रहा। बस गरीब को मरने न देने के लिये कल्याण योजनाओं का अंबार लगा है। आंकड़े दिल दहला देने वाले हैं। 75 - 80 करोड़ लोग 20 रूपये रोज नहीं कमा रहे हैं और फिर भी केवल आत्महत्या कर रहे हैं। किसी की हत्या नहीं कर रहे। 1857 के पहले या बाद में कितने विद्रोह नहीं हुए। पर इतिहास में ये नहीं लिखा है कि अंग्रेजों या औंरंगजेब के अत्याचारों से तंग आकर लाखों लोगों ने आत्महत्या कर ली। आज हर कोई यही बताता रहता है कि किसान आत्महत्या कर रहे हैं। कोई ये नहीं बताता ये लोग मारकर क्यों नहीं मर रहे। ये क्या बदहवासी है?
ये बात संदर्भहीन नहीं है। नाटक करने के पीछे हम लोगों के सामने एक प्रेरणा रहती है। कम से कम एक गलतफहमी तो रहती है कि हम दर्शक को सोचने समझने का मसाला दे रहे हैं। आज के हालात में हम क्या दे पा रहे हैं ? ये विचारों का संकट है। संयुक्त परिवारों में टूटन तो बहुत पहले हो चुकी है अब परिवारों की छोटी छोटी इकाईयां टूट रही हैं। मियां बीवी साथ नहीं रह पा रहे हैं। बहुत नए किस्म की समस्याएं परिवार मंे समाज में और जीवन में आ चुकी हैं। इन पर नाटक में बहुत सीमित काम हो रहा है। साहित्य तो फिर भी अपना काम कर रहा है पर कलाएं अपनी भूमिका नहीं निभा पा रही हैं। कोई उदयशंकर दिखता नहीं है जो नृत्य को हथियार बना दे। नाटक को हथियार बनाने वाले कुछ कारीगर हैं तो पर संख्या बहुत सीमित है। विजय तेंदुलकर जैसा निर्भय और समझौताविहीन नाटककार बहुत दुर्लभ है। नए नाटक कम आ रहे हैं। और बहुत कम हो पा रहे हैं। हमारी आज की सचाई को अभिव्यक्ति दे ऐसे नाटक चाहिये जो नहीं हैं। आज का समय नाटकों में अपनी उपस्थिति मांग रहा है। कुछ कहानी रूपांतर और इक्का दुक्का नाटक ही आए हैं जो हमारे समय को प्रतिबिंबित करते हैं। वरना चहुंओर आज भी अंधा युग और आधेअध्ूारे ही चले जा रहे हैं। आज शांतता कोर्ट चालू आहे, करके किसे सृजन का सुख मिल सकता है। मिलता है तो इसका मायने यही है कि निर्देशक कुछ नया करने का खतरा मोल लेने को तैयार नहीं है।
नाटक दुर्लभ और मंहगा होता जा रहा है। नाटक में भी बाजार की उपस्थिति दिखाई दे रही है जबकि खरीददार नहीं है। मगर बेचनेवाला कह रहा है कि माल बिके नहीं कोई बात नहीं पर सस्ता नहीं किया जायेगा। ये एक अलग किस्म का बाजारवाद है। मगर है। जिस नाटक को आप युगंातरकारी कहते हैं, जिस नाटक को आप श्रेष्ठ कहते हैं। उसका शो नहीं होता। उसका शो कोई करवाना चाहता है तो भी नहीं होता। क्योंकि नाटक का मंचन का खर्च लाखों में पंहुच चुका है। आयोजन करने वाला दे नहीं सकता। सरकारी संस्थान भी नहीं दे सकते। ऐसे श्रेष्ठ नाटक का क्या मायने है।ये तो केवल इतिहास में दर्ज किये जाने के लिये ही तैयार हुए। इसमें काम करने वाले कैसे कलाकार हैं जिन्हें इसका शो करने की कोई ललक नहीं।
हर तरह के नाटक होते है। होते रहते हैं। अच्छे और बुरे। मगर यदि नाटक करने के पीछे समाज को कुछ देने की इच्छा हो तो फिर नाटक को अभिजात्य से जन की ओर तो जाना ही होगा। नाटक को सस्ता जगह जगह खेला जा सकने वाला और सरल बनाना ही होगा। नाटक का दर्शक दिल्ली मुम्बई में नहीं है। जहां दर्शक है वहां पृथ्वी थियेटर और कमानी आडीटोरियम नहीं है। वहां लाखांे का बजट, प्रशिक्षित अभिनेता और रंगसमीक्षक नहीं हैं। वहां सह्ृदय दर्शक है। बहुत कम अपेक्षाओं के साथ नाटक देखने वाला और छोटी छोटी चीजांे को सराहने वाला दर्शक है।
सरकारों के पास संस्कृति के लिये बजट नहीं है। यदि है तो वो हर साल घटता जाता है। नाटक करने वालों की मूल समस्या अनुदान ग्रांट नहीं है। मूल समस्या है रंगमंच। जो है ही नहीं , न उसके बारे में ,उसकी उपयोगिता के बारे में कोई समझ है। हर शहर में एक कला क्षेत्र होना चाहिये जैसे हर शहर में एक स्टेडियम या अस्पताल या सड़क या नाली होती है। जैसे उनकी लागत और आय का अनुपात नहीं देखा जाता वैसे ही कला परिसर का आय और लागत का अनुपात नहीं देखा जाना चाहिये। ये स्थान तो बनाये जाना चाहिये और लगभग मुफ्त में कला प्रदर्शनी, रंगमंच, मुक्ताकाशी रंगमंच बाल रंगमंच फिल्म शो शास्त्रीय व सुगम गायन, वादन, नृत्य व इनके पूर्वाभ्यास के लिये मिलना चाहिये। नवोदित कलाकारों को अच्छे से अच्छा प्रशिक्षण मिलना चाहिये। स्कूलों और कालेजों में नाटक व अन्य कलाओं को पढाया जाना चाहिये। तभी आज के समय मंे रंगकर्म बच पायेगा वरना स्थिति काफी निराशाजनक है। जो कर रहे है वो दरअसल घसीट रहे हैं। जो कर रहे हैं उनके बाद उनका उत्तराधिकारी कोई नहीं है। ये सच है कि समय समय पर कहीं कहीं कोई जुनूनी नौजवान पैदा होकर कुछ दिन अलख जगा देता है पर अपना घर परिवार और रोजगार छोड़कर केवल नाटक करने वालों की पीढ़ी खत्म होती जा रही है। जो कर रहे हैं उनकी हालत लगभग मजबूरी की है। वो न करें तो कहां जायें। ये अनिल भौमिक ही कहां जायें। कभी हिमांशु राय के साथ मिल कर रो लें और फिर सुबह रिहर्सल में चले जायें। जायें तो जायें कहां।

वो जज्बा ही कुछ और था

जब मैं छात्र था तो स्टूडेंट फेडरेशन में काम करता था। वहीं समाज को समझने की मेरी ट्रेनिंग हुई। हम लोग छात्रों के बीच तो काम करते ही थे साथ में फैक्ट्री इलाके में जाकर वहां मजदूर आंदोलनों में अपना सहयोग दिया करते थे। कभी कभी पर बहुत कम गांवो मं भी जाना होता था। पर मूलतः हम शहरी ही थे और शहरी मजदूरों के बीच में काम करते थे। हां यह बात जरूर हुई कि इस काम के दौरान ही छात्र जीवन में ही राजनैतिक सामाजिक धार्मिक मुद्दों पर हमारी समझ साफ हुई। हमने जाना कि धार्मिक झगड़े क्यों और कैसे होते हैं। हमने जाना कि जातिवाद की जड़े कितनी गहरी हैं। उनसे निपटना कितना जटिल है। धर्म कितना संवेदनशील मुद्दा है और उस पर बातचीत करते समय कितना सावधान रहने की जरूरत है। जब हमने थियेटर करना शुरू किया तो हमारे एक साथी ने जो आज हिंदी कहानी का प्रमुख नाम है उसने एक रात में पूरा नुक्कड़ नाटक लिखा। उस समय उसकी उम्र 19 साल थी। वो समय ऐसा था जब हम खूब साहित्य पढ़ते थे। उस उम्र में हममें और हमारे साथी छात्रों में ये बहुत बड़ा फर्क था। नुक्कड़ नाटक करने के बाद मंच नाटक की बारी आई तो पहला नाटक हमने गिनी पिग किया। यह नाटक हमारी दृष्टि में बहुत अच्छा था। मंचन भी बहुत अच्छा हुआ था पर दर्शकों के लिये उसमें छिपा संदेश बहुत कठिन था। उसके बाद वेटिंग फार गोदो, फिर इकतारे की आंख, अखाड़े से बाहर आदि नाटक के बाद कहीं जाकर हम सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की बकरी तक पंहुचे। बकरी के मंचन से ही हमने जाना कि नाटक को यदि सीधे दर्शक से जुड़ना हो तो नाटक कैसा होना चाहिये। अनेक नाटक बहुत अच्छे होते हैं पर आम दर्शक पर अपेक्षित प्रभाव नहीं डाल पाते।
इसके बाद एक ऐसा दौर आया कि हमने तीन नुक्कड़ नाटक तैयार किये और फिर हम गली गली और शहर शहर घूमने लगे। हर जगह हमें बुलाया जाता। हमारे नुक्कड़ नाटकों ने खूब समा बांधा। ये नाटक हम क्यों करते थे ? हमें कोई पैसा नहीं मिलता था। हमें मिलता था संतोष। जब हम नाटक कर रहे होते थे तो दर्शकों की प्रक्रिया देखकर हमारे रांेगटे खड़े हो जाते थे। नाटक खतम होने पर हम झोली फैलाते थे तो हमारी झोली पैसों से भर जाती थी। वो पैसा बहुत पवित्र पैसा था। वो दर्शक हमारा जज्बा देखकर देता था और इसीलिये देता था क्योंकि उसे लगता था कि ये लड़के हमारी बात कह रहे हैं ईमानदारी से कह रहे हैं और क्या खूब कह रहे हैं। समय के साथ नुक्कड़ नाटक कम होते गये। देश की परिस्थितियां बदलीं। विदेशों में परिस्थितियां बदलीं। देश में और दुनिया में वामपंथी आंदोलन कमजोर पड़ा तो हमारे हौसले भी पस्त होने लगे।
आज हालात क्या हैं। क्या देश में वास्तव में इतनी खुशहाली आ गई है कि मजदूर आंदोलन की कोई जरूरत नहीं रही। क्या आज गरीब नहीं है। क्या आज भुखमरी बेरोजगारी नहीं हैं। समस्याएं उतनी ही गंभीर हंै पर अब उनके लिये लड़ने वाले घट गये हैं। मजदूर आंदोलन अब भी है पर उसकी राजनैतिक धार खत्म हो गई है। लोकतंत्र ऐसा मजबूत हो गया है कि किसान मजदूर परेशान हैं पर उनके नुमांइदे संसद और विधानसभा में जा नहीं पाते। मध्यवर्ग जो शहरों में लड़ाई लड़ा करता था वो अब घर मंे बैठा टी वी देख रहा है।
नुक्कड़ नाटक जिसकी हम चर्चा कर रहे हैं वो हमेशा शोषित पीड़ितों की लड़ाई में एक सहयोगी के रूप में ही रहा है। आज यदि ये लड़ाई कमजोर पड़ी है तो नुक्कड़ नाटक भी कम हो गये हैं। नुक्कड़ नाटक करने वाले के पीछे जब तक गरीबों शोषितों के लिये लड़ने का जोश नहीं रहेगा तब तक वो प्रभावशाली नहीं होंगे। नुक्कड़ नाटक एक बड़ी लड़ाई का सहयोगी हिस्सा हैं वो स्वयं में किसी लड़ाई को कैसे लड़ सकते हैं। जैसे युद्ध में वायु सेना, नौसेना और थलसेना और फिर इनके सभी विभाग मिलकर लड़ाई लड़ते हैं तब कहीं जाकर लड़ाई पूरी होती है। इसीलिये नुक्कड़ नाटकों को नवजीवन देने और उसे शोषित पीड़ितों की लड़ाई का हथियार बनाना कोई अलग काम नहीं है। देश मे शोषित पीड़ितो की लड़ाई तेज होगी तभी उसमें नुक्कड़ नाटक अपनी भूमिका का निर्वाह कर पायेगा।
आज आम सभाओं और बैठकों का समय नहीं रहा। पर यदि मजदूर अपनी बात गीत गाकर कहता है तो काफी लोगो ंको सुना पाता है। इसी तरह यदि मजदूर दलित शोषित पीड़ित अपनी बात अपने लोगों के बीच में एक नाटक तैयार करके कह पाये तो वो ज्यादा बेहतर तरीका हो सकता है अपनी बात कहने का और उन लोगो को सुनाने का जिन्हें सुनाई जाना है। नुक्कड़ नाटक की खासियत ये है कि ये सीधे संवाद करता है। और जब नुक्कड़ नाटक के द्वारा बात कही जा रही होती है तो उस समय केवल कलाकार की ही बात सुनी जाती है। उसका विरोध नहीं हो पाता। गांवों में लोकगायक, लोककवि और कहीं कहीं कथा गायक अकेले ही ऐसा समा बांधते हैं कि देखते ही बनता है।
हबीब तनवीर के कलाकारों को देखकर हम नुक्कड नाटक में कलात्मकता का विकास देख सकते हैं। नुक्कड़ नाटकों के लिये विचित्र वेशभूषा आदि का इस्तेमाल करके ये कोशिश की गई नाटक कलात्मक दिखे मगर हमेशा ये प्रभावकारी नहीं हुआ। चेहरे को विचित्र मेकअप से सजाया गया पर कितना कारगर हुआ कहा नहीं जा सकता क्योंकि मूल बात ये है कि आप क्या कहना चाहते हैं किसके लिये कहना चाहते हैं और आप कौन हैं। ये सबसे महत्वपूर्ण है। यदि आप उस वर्ग के नहीं हैं तो आपका सारा काम थोपा हुआ और बाहरी लगेगा। नुक्कड़ नाटकों मे प्रायः कथा तत्व नहीं रहता है। मैनें पाया है कि यदि नुक्कड़ नाटक में कोई कथा सूत्र हो तो वो रूचि पैदा करता है। नाटक ज्यादा प्रभावशाली बन पड़ता है। कलाकारों का अभिनय और दर्शकों को बंाधने के लिये स्थानीय गीत संगीत और बोली जरूरी हैं। ये ही नाटक को कलात्मक भी बनाते हैं और प्रभावकारी भी। नुक्कड नाटक नुक्कड़ पर ही हों ये जरूरी नहीं है। यदि किसी शांतिपूर्ण जगह पर हों तो जितने लोग भी देखते हैं वो पूरा नाटक ग्रहण कर पाते हैं। नुक्कड़ नाटक के मंचन स्थल को आकर्षक तरीके से सजाने से भी वो मंच नाटक की अच्छाई को आत्मसात कर पाता है और ज्यादा प्रभावशाली बन पाता है।

नाट्य लेखन का समकालीन परिदृश्य

ऐसे अनेक नाट्यलेखक हुए हैं जिनके समय मंे नाटक बहुत कम होते थे। कम से कम वैसे नाटक तो नहीं ही होते थे जैसे वो लिखते थे। फिर भी ऐसे लेखकों ने अनेक नाटक लिखे। इस बात की परवाह नहीं की कि उनका लिखा नाटक मंचित कैसे होगा और उसे कौन मंचित करेगा। जयशंकर प्रसाद ऐसे ही नाट्य लेखक थे। उनके समय में फिल्म आदि का प्रभाव तो नगण्य था। नाटक ही होते थे पर उनके लिखे नाटक तो मंचित नहीं हुए। बरसों बाद बा व कारंथ ने समुद्रगुप्त का मंचन किया और बहुत अच्छे से किया। हालांकि नाटक को मंचन योग्य बनाने के लिये उन्हें बहुत मशक्कत करना पड़ी। फिर भी वा व कारंथ के बाद उन नाटकों का मंचन लगभग नहीं ही हुआ। कारंथ जी का अध्ययन बहुत व्यापक था और वो बहुत डूबकर नाटक मंचित करते थे। उनके नाटक में कर्णप्रिय संगीत एक प्रमुख प्रभावी तत्व हुआ करता था। कारंथ के कारण ही यह कहना संभव हुआ कि जयशंकर प्रसाद के नाटक मंचित किये जा सकते हैं। जयशंकर प्रसाद एक गंभीर लेखक थे और उनके लिये नाटक विचार अभिव्यक्ति का माध्यम मात्र था। उन्हें नाटक के रूप में अपनी कथा को बेहतर विस्तार की संभावना नजर आई और उन्होंने नाटक लिखे।
बहुतेरे लेखकों कवियों के बीच में बहुत कम लेखक नाटक लिखते हैं। अव्वल तो नाटक लिखना तकनीकी तरीके से भी एक कठिन काम है। विचार को पहले कथा में बांधना, फिर कथा को पात्रों मंे बांधना और फिर दृश्य तैयार करना ताकि कथा के उतार चढ़ाव बनते जायें। दृश्य के बीच में भी कथा में तनाव और हास्य के क्षण पैदा करना। चरित्रों को अभिनय और मंच पर गति के लिये पूरा अवसर देना। यह सब किसी भी लेखक के लिये कहानी या कविता लिखने से बहुत अधिक कठिन काम है। इसीलिये लेखक कवि समुदाय में बिरले ही होते हैं जो नाटक लिखते हैं। नाटक लिखने के लिये नाटक से जुड़ना बहुत जरूरी होता है। अव्वल तो उत्तर भारत में जहां के नाट्य परिदृश्य की हम चर्चा कर रहे हैं वहां नाटक बहुत कम मंचित होते हैं। नाट्य संस्थाएं गिनी चुनी हैं। प्रायः होता ये है कि किसी शहर में कोई नौजवान नाटक करने के लिये खड़ा होता है। कलाकारों को जोड़ता है और रिहर्सल शुरू करता है। किसी तरह नाटक तैयार होता है तो उसके मंचन की तैयारी की जाती है। पैसे की व्यवस्था की जाती है। न लाइट की ठीकठाक व्यवस्था होती है न हाॅल की। बहुत मुश्किल से नाटक मंचित होता है और होता है तगड़ा घाटा। इस सबके बीच में नाट्य लेखन कहीं खो जाता है। शहर में कोई लेखक होगा तो वो नाटक देखने नहीं आएगा। आएगा तो नाटक देखकर नाटक लिखने की कोशिश करेगा यह जरूरी नहीं। नया उभरता निर्देशक प्रायः उस नाटक को उठाता है जो उसका देखा हुआ होता है या जिसकी सफलता स्वयंसिद्ध होती है। इसीलिये नए नाटक के लिये गुंजाइश कम हो जाती है। बहुत बार इस तरह के युवा निर्देशक स्वयं का लिखा नाटक करना पसंद करते हैं। बहुत बार इनमें काफी अच्छा लेखन देखने को मिलता है पर प्रचार प्रसार प्रकाशन के अभाव में ये नए नाटक चर्चा में नहीं आ पाते। छिंदवाड़ा कोयला खदानों का इलाका है। यहां के शहरी लड़कों ने कोयला मजदूरों की व्यथा को व्यक्त करते हुए एक नाटक धरती के नीचे का मंचन किया। इसे छिंदवाड़ा के ही एक लेखक ने लिखा था। मंच पर पूरी खदान का सैट बनाया गया था। अति सीमित साधनों में बहुत सी मुश्किलों के बीच यह नाटक मुझे पसंद आया। लेखक से चर्चा हुई। इस नाटक के लिखे जाने की पीछे मूलरूप से लेखक का कलाकारों से जुड़ाव था।
भीष्म साहनी मूलरूप से कहानीकार और उपन्यासकार थे। पर उनकी शुरूआत इप्टा और नाटकों से हुई थी। बाद में वे दिल्ली में नाट्य निर्देशकों और नाट्य संस्थाओं के संपर्क मंे आए। वो रिहर्सल में जाकर बैठा करते थे। कलाकारों और निर्देशक से बातचीत करते थे। इसका परिणाम ये हुआ कि हिन्दी नाट्य जगत को बहुत से अच्छे नाटक मिले। हानूश, माधवी, मुआवजे, कबिरा खड़ा बाजार में आदि उनके वो नाटक हैं जो देश के किसी न किसी शहर में लगातार खेले जाते हैं। उनके नाटकों की खासियत ये है कि वे कालजयी हैं। उनकी विषयवस्तु ऐसी है कि वो हमेशा खेले जायेंगे और हमेशा जीवंत रहेंगे। हानूश सामंतवादी समाज के पूंजीवादी समाज में संक्रमण की कथा है। इसका परिवेश विदेशी है। चेकोस्लोवाकिया में दुनिया की पहली घड़ी बनाई जाती है और व्यापारी वर्ग ये तय करता है कि इसके सहारे हम दुनिया के व्यापार पर कब्जा कर लेंगे। राजा और धर्मगुरू मानते हैं कि इससे पूंजीपतियों का वर्चस्व बढ़ जायेगा। परिणाम ये होता है कि हानूश जिसने घड़ी बनाई है उसकी आंखें फोड़ दी जाती हैं। माधवी प्राचीनकाल से स्त्री की शक्ति, उत्पीड़न और विजय की कथा है। कबिरा खड़ा बाजार में कबीर पर केन्द्रित है। यह एक संगीतमय नाटक है। कबीर अपनी बेबाकी और विचारशील फक्कड़पन के लिये जाने जाते हैं। उनके पूरे जीवन को इस नाटक में प्रस्तुत किया गया है। मुआवजे नाटक समाज में पैसे और उससे जुड़े संबंधों का नाटक है। एक बस्ती में सभी तरह के लोग हैं। इस बीच उनके बीच मंे मुआवजे बांटे जाने की घोषणा होती है। इसके कारण उनके बीच संबंधों का जो संघर्ष शुरू होता है वह एक अच्छे नाटक की रचना करता है।
हमारे देश के प्रमुख निर्देशकों के बीच एक प्रवृत्ति है। वो नए नाटक मंचित करने से बचते हैं। आज भी तीस चालीस साल पुराने नाटक मंचित किये जा रहे हैं। यदि कोई नया निर्देशक असफलता के खतरे से बचने की कोशिश करे तो समझ आता है पर यदि स्थापित निर्देशक भी यही करें तो इससे नए नाटकों के सृजन पर असर पड़ता है। आज भी अंधेर नगरी, अंधा युग, आधे अधूरे, आषाढ का एक दिन लगातार मंचित हो रहे हैं। इस दृष्टि से देखा जाए तो कहानी मंचन अभियान ने हिन्दी नाट्य आंदोलन को सही अर्थाें में मदद की है। हालांकि कहानी मंचन बहुत पहले से हो रहे हैं पर देवेन्द्रराज अंकुर को यह श्रेय जरूर जाता है कि उन्होंने कहानी मंचन को एक अभियान की शक्ल दी। इसका एक परोक्ष परिणाम यह हुआ कि बहुत से कहानीकार ये अपेक्षा रखने लगे हैं कि उनकी कहानी का मंचन हो। यह सुखद संकेत है क्योंकि भविष्य में ये कहानीकार नाटक लिखने के लिये भी आगे आयेंगे। देवेन्द्रराज अंकुर जी ने कहानी मंचनों को इतना रोचक और ग्राह्य बना दिया है कि कहानी मंचन देखना एक निराला अनुभव बन जाता है। संक्रमण, हमसे तुमसे प्यार करेगा कौन, वापसी, उसका बचपन आदि न जाने कितनी कहानियों का मंचन अंकुर जी ने किया है। अब राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के तीनों सालोें के छात्रों के बीच में भी लगातार कहानी मंचन एक शौक की तरह प्रचलित हो गया है। यह एक अच्छा संकेत है। हालांकि बहुत से आलोचक मानते हैं कि कहानी मंचन नाटक नहीं है। नाटक मंचन ही नाटक है। नाटक को मूलरूप से नाटक के रूप में ही लिखा जाना चाहिए। तभी उसका लिखा जाना और मचित किया जाना सार्थक है। इससे सहमत होना और असहमत होना दोनों ही संभव है। पर दर्शक को इस बात से कोई परहेज नहीं है। दर्शक को मंच पर एक अच्छे नाटक की अपेक्षा रहती है जो उसे पूरा रस पूरा आनंद दे।
आज के समय में लगातार नए नाटक आ रहे हैं। मंचित भी हो रहे हैं। पर ये कहा जाता है और लगभग मुहावरे की तरह दोहराया जाता है कि हिन्दी में नाटकों की भारी कमी है। यह बात सच नहीं है। सच बात ये है कि नाटक करने वालों की कमी है और नए नाटक मंचित करने वालों की और ज्यादा कमी है। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की पत्रिका रंगप्रसंग में प्रत्येक अंक मंे एक अच्छा नाटक प्रकाशित होता है। अभी अभी शाहिद अनवर के दो नए नाटक आए हैं। इन नाटकों की भरपूर चर्चा है। इनमें ताजगी है और विषय की रोचकता है। इन दोनों ही नाटकों में विचार है और नाटक के सामान्य लटके झटके नहीं हैं। बी थ्री नौजवानों को लेकर लिखा गया है जिसमें युवा मस्तिष्क को कुंदकर उसे दिमागी तौर पर गुलाम बनाने की प्रक्रिया का चित्रण है। नाटक बिना किसी राजनीति को रेखांकित किये बगैर राजनीति के दुष्प्रभावों को सामने लाता है। नाटक पूरी तरह से समकालीन नाटक है जिसका लंबे अर्से से इंतजार किया जा रहा था। हमारे समाज में जो कट्टरता और असहिष्णुता बढ रही है उसके कार्यकारणों पर नाटक गहराई से बात करता है। दूसरा नाटक हमारे समय में घर में पति पत्नि के बीच में और समाज में मूल्यों की गिरावट पर बात करता है। मुकुल एक ऐसा लड़का है जो बेहद ईमानदार और विचार वान लड़का है। वो अपनी नौकरी में अपने जीवन मूल्यों के कारण परेशानी झेलता है और घर में बैठा दिया जाता है। वो घर में बेरोजगार बैठा है पर अपने मूल्यों से डिगने को तैयार नहीं है। काफी समय तक संघर्ष के बाद एक समय ऐसा आता है जब वो टूटने लगता है। ऐसे समय में उसका एक दोस्त उसे प्रलोभन देता है और पैसा कमाने का अवसर देता है। मुकुल तैयार हो जाता है पर उसकी पत्नि बिफर उठती है। वो कहती है कि मैं जिस मुकुल को चाहती हूं हूं वह सिद्धांतवादी है। यदि उसने अपने सिद्धांत छोड़ दिये तो हमारा संबंध खत्म। नाटक का अंत बहुत रोचक है। शाहिद अनवर ने अपनी एक अलग पहचान बनाई है और उन्हें साहित्य कला परिषद नई दिल्ली का नाट्य लेखन का प्रथम पुरस्कार मिला है।
इस वर्ष इब्सन का जन्म शताब्दी वर्ष होने के कारण इब्सन के कई नाटक प्रकाशित हुए हैं। मास्टर बिल्डर और हेड्डा गेबलर उनके दो महत्वपूर्ण नाटक हैं जो प्रकाशित हुए हैं और जिनका बहुत स्वागत हुआ है। इब्सन का सबसे ज्यादा मंचित नाटक जनशत्रु है जिसके मंचन हमेशा होते रहे हैं। इस दौरान इब्सन के नाटकों पर गोष्ठियां ही ज्यादा हुईं। नाटक कम ही हुए। ऋषिकेश सुलभ के तीन नाटकों की एक किताब अभी आई है। इसका एक नाटक अमली अभी काफी शहरों में मंचित हुआ है। इस वर्ष राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय दिल्ली ने भारतीय रंगकोष प्रकाशित कर एक बड़ा काम किया है। नाटकों की पत्रिका नटरंग अब नियमित प्रकाशित हो रही है। इसमें भी समय समय पर नाटक प्रकाशित होते रहते हैं। पहले के सभी चर्चित नाटक सबसे पहले नटरंग में ही प्रकाशित हुए हैं। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ने रंगप्रसंग पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया है जिसमें नाटकों पर महत्वपूर्ण लेख और चर्चाएं प्रकाशित होती हैं।
कुलमिलाकर यह कहा जा सकता है कि रंगकर्म का समकालीन परिदृश्य अपनी सीमाओं और बाधाओं के बावजूद बहुत संभावनाशील है। आने वाले समय में बहुत अच्छे नाटक लिखे जायेंगे यह विश्वास सहज ही किया जा सकता है। - हिमांशु राय

जनसांस्कृतिक आंदोलन के बदलते संदर्भ और सृजनात्मक चुनौतियां

सन् 1982 83 से भारतीय समाज में व्यापक बदलाव दिखाई पड़ रहा है। इस बदलाव का नतीजा ये है कि पहले जो आंदोलन जनता के पक्ष में हुआ करते थे वो अब लगभग बंद हो गये हैं। बहुत से अंादोलन अब होते ही नहीं हैं या महज औपचारिकता रह गये हैं। नए मुद्दों पर आंदोलन खडे़ होते दिखते नहीं। जो आंदोलन हो रहे हैं वो ना तो जन सांस्कृतिक आंदोलन का हिस्सा हैं और न हो सकते हैं। पर इन बेहूदे आंदोलनों की उपस्थिति से इंकार नहीं किया जा सकता। यह भी स्वीकार किया जाना चाहिए कि जो सामाजिक बदलाव हो रहे हैं उनके बारे में जागरूकता फैलाने में और उनकी व्याख्या हम लोगों तक नहीं पंहुचा रहे हैं। सामाजिक बदलावों का अच्छा अध्ययन भी शायद उपलब्ध नहीं है।
इन बदलावों को रेखांकित करें तो सर्वाधिक आक्रामक उपस्थिति टी वी और उसके चैनलों की है। इसके आने से आम भारतीय(यहां गांव के सर्वहारा की बात नहीं की जा रही है) के जीवन में व्यापक तब्दीली आई है। उसके समय का उपयोग, प्राथमिकताएं बदल गई हैं। टी वी की उपस्थिति एक अनिवार्य उपस्थिति हो गई है और उसका तोड़ केवल यही है कि आप भी अपनी बात कहने के लिए उसका उपयोग करें जो अभी तक नहीं कर पा रहे हैं। टी वी के चैनल लगातार जहर उगल रहे हैं और हम ये हलाहल पीने को मजबूर हैं। जरूरत है कि हमारे बीच के इस विधा के पारंगत लोग इस सृजनात्मक चुनौती को स्वीकार करें और जनता के बीच प्रमाणित करें कि हमारे विचार महत्वपूर्ण हैं। हमारे पास भी कहने को कुछ है।
आज काम के घंटे की बात बेमानी हो गई है। वो समय दूर नहीं है जब भारत में 1887 के समान ही एक खून से सना जुलूस निकले जिसमें आठ घंटे काम और 16 घंटे काम से मुक्ति की बात हो। शहरी पढ़ा लिखा युवा अच्छी तनखाह पर नौकरी तो पा रहा है लेकिन उसके पास अपने लिए और अपने परिवार के लिये कोई समय नहीं बचा है। यह स्थिति न केवल गैर सरकारी संस्थानों में है बल्कि इसी किस्म के सरकारी संस्थानों में है। लाखांे की संख्या में लोग इस शोषण का शिकार हैं और उनमें से अधिकांश को तो पता भी नहीं है कि वे शोषित हैं और उनकी मांग क्या होना चाहिए। एक जमाने में मेडिकल रिप्रेजें़टिव की नौकरी बहुत आकर्षक मानी जाती थी। बाद में इन लोगों ने सेवा शर्ताें के लिए लंबा संघर्ष किया। आज काल सेंटर, कम्प्यूटर साफ्टवेयर आदि नए क्षेत्रों में लाखांे लोग काम कर रहे हैं जिनकी कोई सेवा शर्तें नहीं हैं। सेवा शर्तों के अलावा इनका कोई जीवन नहीं है। इनकी पढ़ाई लिखाई जिस माहौल और जिस लक्ष्य को लेकर हुई है उसमें साहित्य, संगीत, सामाजिकता का कोई नाता नहीं है। यह भी चिंता का विषय है कि इनकी अगली पीढ़ी जो अगले दस बीस सालों में आएगी वो किस मानसिकता की होगी। हमारा तो इसी पीढ़ी से सरोकार नहीं हो पाया है तो अगली पीढ़ी से क्या होगा।
युवाओं के सोच में बड़ा परिवर्तन आया है। वो राजनीति से दूर हुआ। वो कमाई के प्रति बहुत सचेत हुआ है। वो संगीत में, फिल्मों में, अपनी पसंद व्यक्त कर रहा है। नृत्य की तो चर्चा न करना ही बेहतर है। दुखद है कि इस विकास के दौर में कोई ऐसी स्थिति नहीं बनी कि मजबूरी में ही सही साहित्य पढा़ जाए। स्कूली पढ़ाई मं मातृभाषा का विकल्प कम्प्यूटर कर दिया गया है। और बच्चे कम्प्यूटर को विकल्प के रूप में चुन रहे हैं।
जनसांस्कृतिक आंदोलन में और वामपंथी आंदोलन में युवाओं की निर्णायक भूमिका कम हो चुकी है। युवाओं की व्यस्तताएं अलग हैं और ये स्वीकार किया जाना चाहिए कि युवाआंे में हमारा हस्तक्षेप कम है। उनकी आज की समस्याओं से हम दो चार नहीं हैं। इसका परिणाम सृजन में दिखाई पड़ सकता है। यह भी एक सृजनात्मक चुनौती है।
जिस भाषा में हम सृजन कर रहे हैं उसके प्रति हम कितने सजग हैं। पूरा भारत एक झूठ पर जी रहा है कि पैदा हुए बच्चे को यदि अंग्रेजी न सिखाई गई तो उसका इस दुनिया में पैदा होना व्यर्थ है। बड़े बड़े शिक्षाविद्, समाजशास्त्री इसी निष्कर्ष पर पंहुचे हैं कि अच्छी शिक्षा का मतलब है बच्चों को उनकी मातृभाषा और परिवेश से मुक्त कर देना और तथाकथित अंग्रेजी सिखाना जो उन्हें कहीं का न रहने दे। सबसे हास्यास्पद स्थिति तो यह है कि हिन्दी का लेखक कविता कहानी हिन्दी में करता है पर आलोचना और चर्चा के लिए उसके पास हिन्दी में शब्द नहीं है। पूरी व्याख्या अंग्रेजी में होती है। ये हमारे सोच और जनआंदोलनों से जुड़ाव की बानगी है।
समय बदल रहा है। यह कहकर हम अपनी सुविधा का बदलाव देखते हैं। बदलाव तो बदलाव है चाहे हमें पसंद हो या न हो। पर बदलाव का अध्ययन और उसे जस का तस स्वीकार करके ही आगे बढ़ा जा सकता है। यही तो संदर्भों का अध्ययन है। पहले के संदर्भ तो हम जानते हैं पर आज के संदर्भ बहुत विश्लेषण की मांग करते हैं। इस संदर्भ में ये कहा जा सकता है कि साहित्य में, नाटक में नए संदर्भ उतनी तीक्ष्णता से आ नहीं रहे हैं जैसे आना चाहिए।नए नाटक कितने आए? नई कहानियां कितनी हैं जो उथल पुथल मचा दें ? ये भी जन सांस्कृतिक आंदोलन का बदलता संदर्भ है। मजदूर आंदोलन कमजोर हुआ है। संगठित मजदूरों की शक्ति घटी है। ये भी कहा जा सकता है कि जीवन स्तर ऊपर उठा है। इसीलिए इस वर्ग के जीवन संघर्ष के संदर्भ बदल गए हैं।
जन सांस्कृतिक आंदोलन का निशाना कौन है ? किसके लिए हम काम करना चाहते हैं और हम कौन हैं। हमारा वर्ग क्या है और हम किस वर्ग के लिए लड़ना चाहते हैं इसकी स्पष्ट समझ विकसित करना चाहिए। यह हमें अपने मूल्यांकन, संदर्भों और सृजन की चुनौतियों को स्पष्ट करने में मदद देगा। हमारी चिंता खेत मजदूर और गांव के अति शोषित मजदूर की है। पर हमारा कार्यक्षेत्र शहर का निम्न और मध्यम मध्यमवर्ग है। हम जिस वर्ग में काम कर रहे हैं उसी की समस्याओं और विकल्पों को ज्यादा बेहतर तरीके से समझ सकते हैं। इसीलिए बेहतर परिणाम के साथ काम कर सकते हैं। इसीलिए बीच बीच में अचानक कोई ऐसी कविता या कहानी हमारे बीच में कौंध जाती है जो हमें हमारी बात कहती नजर आती है।
अभी अभी शाहिद अनवर का नाटक बी 3 पढ़ा। नाटक वाले लोग सबसे पहले नाटक को इस दृष्टि से पढ़ते हैं कि वो हमारी बात कहता है या नहीं। और हम से करते बनेगा या नहीं। बी 3 की खासियत ये लगी कि ये अद्भुत सरलता से बहुत कठिन बात कहता है और नाटक करने लायक भी है। ये सृजनात्मक चुनौती है जिसे शाहिद अनवर ने स्वीकार किया। इस उदाहरण के साथ बात खत्म की जा सकती है ।
-हिमांशु राय

भारतीय रंगमंच की दशा और दिशा

भारतीय रंगमंच की दशा और दिशा विषय में यह निहित है कि हम दशा नहीं दुर्दशा की बात कर रहे हैं। ये बात बहुत सालों से कही जा रही है कि रंगमंच की दुर्दशा हो गई है और रंगमंच दिशाहीन हो गया है। दशा सुधारना है और दिशा सही करना है। दशा कब अच्छी थी ? कब दिशा थी ? और एक प्रश्न और है वो ये कि जो भी दिशा थी वो क्या आपको पसंद थी ? कौन से काल को आप स्वर्णिम युग कहेंगे ? और आज का युग कैसा युग है ? किस धातु का युग है ?
जो लोग रंगकर्म करते हैं यानी रोज रिहर्सल करते हैं और हर कुछ दिन में मंचन करते हैं उनकी स्थिति और एक प्रेक्षक की स्थिति में फर्क है। रंगकर्म करने वालों की समस्यायें अलग हैं और देखने वालों की समस्याएं अलग हैं। देखने वाले को करने वाले की समस्या से कोई वास्ता नहीं है। प्रेक्षक को केवल मंच पर होने वाला कार्यव्यापार देखना है। उसे मंचन करने वाले की समस्या से कोई मतलब नहीं है। जबकि रंगमंच की समीक्षा करने के लिये दशा और दिशा की पड़ताल करने के लिये सामग्री तो रचना करने वाला उपलब्ध कराता है।
एक समस्या नाटकों के आलेख की उपलब्धता की है। बहुत से अच्छे नाटक हैं। अपनी भाषा में और दुनिया की दूसरी भाषाओं में। मगर हर नाटक हर एक के बस का रोग नहीं है। दल को देखना पड़ता है कि कौन सा नाटक करने लायक लोग हमारे पास है। कितना पैसा लगेगा और उसमें से कितना अपने पास है ? जो
नाटक उपलब्ध हैं उसमें से कौन सा नाटक हम कर सकते हैं, किसके लायक कलाकार हमारे पास है ? किस नाटक के शो मिल सकते हैं ? किस पर पैसा खर्च किया जाये। नाटक को सैट कैसा हो ताकि नाटक कहीं भी ले जाया जा सके। कभी कभी शासकीय संस्थानों में नाटक तैयार होते हैं उनमें निर्देशक को ये आजादी होती है कि वो मनचाही स्क्रिप्ट चुन ले। मनचाहे कलाकार ले ले और बिना दर्शकों की परवाह किये नाटक तैयार कर ले। ऐसे नाटक देखकर दर्शक फिर चाहे उनकी संख्या जितनी भी हो जब बाहर निकलता है तो यही कहता है कि इतना पैसा खर्च करके कैसा नाटक तैयार किया है। आशय यह है कि एक ओर संस्था एक एक पैसे और एक एक दर्शक का हिसाब रखती है और दूसरी ओर कोई परवाह नहीं रहती जबकि सब जानते हैं कि आखिर नाटक दर्शक के लिये ही तैयार किया जाता है।
दशा दिशा का एक महत्वपूर्ण तत्व नाटक का मौलिक और अपनी भाषा में लिखा होना माना जाता है। ये बात सिद्धांत के तौर पर कही जा सकती है पर व्यावहारिक तौर पर नही। इसी प्रकार नाटक नाटक के तौर पर ही लिखा हो यह भी जरूरी माना जाता है। यानी नाटक किसी उपन्यास, कहानी पर आधारित न हो। रंगसंस्था अपने सीमित साधनों में काम करती है और नाटक के चुनाव के समय में नाटक की संप्रेषणीयता और रोचकता को ध्यान में रखती है। ये जिद केवल एकाध संस्था ही पालती है कि हम केवल अपनी भाषा में लिखा नाटक ही करेंगे। वरना सब यही देखते हैं कि कौन सा नाटक हम कर सकते हैं और दर्शकों को अच्छा लगेगा। इसी लिये देशी विदेशी और लोकभाषा के सभी किस्म के नाटक किये जाते हैं। कहानी मंचन, उपन्यास मंचन और कविता मंचन के माध्यम से रंगजगत बहुत सशक्त हुआ है। बहुत से अच्छे नाटक दर्शकों को देखने को मिले हैं। उसी तरह विदेशी नाटकों के भी बहुत अच्छे मंचन होते हैं। उन्हें केवल इसी आधार पर खारिज नहीं किया जा सकता कि वो विदेशी नाटक हैं। दर्शक तो अच्छा नाटक देखने आता है वो देशी विदेशी का भेदभाव पसंद नहीं करता।
आज भी हिन्दी जगत में कुछ नाटक बारंबार खेले जा रहे हैं और उनको खेले जाने का कारण बहुत प्रशंसनीय नहीं है। मसलन अंधा युग, आषाढ का एक दिन या आधे अधूरे। ये नाटक इतने बार और इतनी विविधताओं के साथ मंचित हो चुुके हैं कि अब इनमें कोई संभावना नहंीं बची है। इनको यदि मंचित किया जाता है तो निश्चित रूप से निर्देशक की दशा और दिशा मंे खोट है। हिन्दी में नाटकों की इतनी भी कमी नहीं है कि इन्हीं नाटकों को बारंबार खेलने की नौबत आए। मगर सफलता की गारंटी और स्क्रिप्ट चुनने की चुनौती से बचने के लिये ये नाटक ढाल का काम करते हैं।
आज छोटे शहर से लेकर महानगरों तक रंगकर्मी एक ऐसी समस्या से जूझ रहे हैं जो कुछ साल पहले तक नहीं थी। रंगकर्म से जुड़ने वाले युवाओं का अभाव। शिक्षा का जो कार्य व्यापार चल रहा है उसका ये परिणाम है कि पूरे साल युवा और बच्चे पढ़ाई, कोचिंग, सेमिनार और परीक्षाओं में लगे हुए हैं। उनके पास वास्तव में समय नहीं है कि वो कोई भी अतिरिक्त गतिविधि करें। उनके पाठ्यक्रम में मातृभाषा की जगह कम्प्यूटर पढ़ने की सुविधा दे दी गई है। जब साहित्य पढ़ेगा नहीं तो साहित्य को मंचित कैसे करेगा और साहित्य को मंच पर देखेगा कैसे। ये हमारे समय का सवाल है। इससे कोई निपट सकता है या नहीं ये तो नहीं मालूम पर हां ये एक बहुत बड़ी व्यावहारिक समस्या है। विवेचना ने अभी महाविद्यालयों में एक दिन का शिविर लगाया, उसका अनुभव बहुत अच्छा रहा। काफी युवाओं से बात हुई। वो जुड़ना चाहते हैं पर समय की कमी है। हमें काम करना है तो उनकी उपलब्धता के हिसाब से समय तय करना होगा।
मातृभाषा में नाटकों की कमी है। क्यों है ? क्योंकि नाटक बहुत कम होते हैं फिर नाटक से लेखकों का जुड़ाव ही नहीं है। जो बहुत अच्छे नाटक लिखे गये हैं देखा जाए तो उनके पीछे नाटककार का नाटक और रिहर्सल से जुडे़ होना रहा है। यह जरूरी नहीं है कि बहुत अच्छा कहानी लेखक या उपन्यास लेखक बहुत अच्छा नाटककार बन ही जाये। फिर यह भी देखा गया है कि अधिकांश साहित्यकार तो नाटक देखने ही नहीं जाते। नाटक कहां से लिखेंगे। यदि लेखक नाट्य संस्थाओं से जुड़ें और लगातार काम करें तो कोई आश्चर्य नहीं कि कुछ अच्छे नाटक हमें मिलें।
नाटक की दशा बहुत खराब नहीं है। हां आज के समय में इलेक्ट्राॅनिक आक्रमण के कारण स्थितियां बहुत बदल गईं हैं। पुरानी नाट्य संस्थाएं बंद हो रही हैं और नई पैदा हो रही हैं। नए नए रंगकर्मी नई ऊर्जा के साथ मैदान में उतर रहे हैं। नए नए नाटक लिखे जा रहे हैं। मंचित हो रहे हैं। हां पहले छोटे छोटे शहरों में नाटक बहुत होते थे। अब नहीं होते। अब हम लोग केवल पुराने लोगों की कहानियां सुनते हैं। क्या जुनूनी लोग थे। अब अचानक किसी शहर में कोई लड़का पंहुचता है और एक नाट्य शिविर लगाकर कुछ लोगों को जोड़ता है। कुछ शिष्य तैयार होते हैं और फिर ये नौजवान अचानक फुर र्र र्र हो जाता है। मुम्बई या कहीं और। नए शिष्यों में से भी कुछ मुम्बई चल पड़ते हैं।उस शहर के रंगकर्म की इतिश्री हो जाती है। या फिर इस तरह का नौजवान किसी शहर में पंहुचकर किसी संस्था से जुड़ता है और फिर उसे तोड़ फोड़ कर चल देता है। ये नकारात्मक बात है पर बहुत बार शिविरों से फायदा भी होता है। युवाओं को पहली बार नाट्य जगत से परिचय मिलता है। वो काफी सीखते हैं जो उनके जीवन में काम आता है। वो रंगकर्म से जुड़ते हैं। साथ ही रंगकर्म की दशा सुधारते हैं।
नाटक का निर्देशक बनने में बरसों लगते हैं। बहुत से अच्छे बुरे नाटक करने, बहुत कुछ पढने, देखने के बाद वर्षों में एक निर्देशक तैयार होता है। जो रंगकर्म की दशा सुधारने और दिशा देने में मदद कर सकता है। ऐसी घटनाएं इतनी कम होती हैं कि हम बरसों तक किसी शहर से एक ही नाम सुनते रह जाते हैं।
एक समस्या भौतिक है। अच्छे नाट्यगृह और अच्छे रिहर्सल रूम की नहीं हैं। नाट्यगृह के नाम पर जो बैडमिंटन हाॅल या स्कूल काॅलेज का मंच मिलता है उसे नाटक लायक बनाने मंे हजारों रूपये लगते हैं। एक शो में दस पंद्रह हजार रूपये खर्च हो जाता है और आय शून्य। अब कहां से हो नियमित रंगकर्म। नियमित रंगकर्म नहीं होगा तो दर्शक नहीं बनेगा। दर्शक नहीं होगा तो रंगकर्म कहां से होगा। यह एक चक्रव्यूह है जिसमें देश का रंगकर्म फंसा हुआ है।
इन परिस्थितियों में देश में रंगकर्म की दशा जैसी भी है ठीक है। ंइससे ज्यादा अच्छी कैसे हो सकती है। दशा सुधारने के लिये अनेक सुझाव दिये जा रहे हैं मसलन एक की जगह अनेक राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय खोलना, लोकनाटकों और उससे जुड़ी विधाओं के प्रोत्साहन प्रशिक्षण के लिये संस्थानों का निर्माण। ये सुझाव अच्छे हैं पर पूर्ण नहीं हैं। इनके अलावा भी बहुत कुछ किया जाना है। पर उसके लिये एक दूरदर्शी सोच के साथ काम होना जरूरी है। बहुत सारे आधे अधूरे निर्णय लेकर बेमन से किसी योजना को कुछ दूर तक चलाकर छोड़ देने से काम नहीं चलेगा। मध्यप्रदेश में बालरंगमंडल की योजना इसी तरह दुर्गति को प्राप्त हुई है।
रंगकर्म की दिशा क्या होना चाहिए ? पहले कोई दिशा थी ? हमारा सौभाग्य है कि रंगकर्म की जो भी दिशा थी या है वो अच्छे जीवन मूल्यों को आदर्श मानती है। हमारे देश का रंगकर्म पुरातनपंथी, रूढिवादी विचारों के विरूद्ध प्रगतिशील विचारों का पोषक रहा है। आलेख हों या मंचन हर जगह मानवतावादी विचारधारा हावी रही है। और यह हमारी धरोहर है। इस दिशा के विरूद्ध काम करने की कोशिशें लगातार होती रही हैं। पर अब तक न तो कामयाब र्हुइं और न उन्हें कोई स्वीकृति प्राप्त हुई। नाटकों में पिछले दिनों बहुत से तकनीकी प्रयोग देखने को मिले। तकनीक के भरोसे कला कैसे चलेगी ? नया करने की चाहत में लाइट साउंड और दूसरी तरकीबों, तकनीकों के भरोसे कुछ भी करने से रंगकर्म के जगत में कोई अमरत्व प्राप्त नहीं होगा।
मैं इप्टा से जुड़ा हुआ हूं। इप्टा से देश भर के हजारों रंगकर्मी जुडे़ हुए हैं। मध्यप्रदेश में ही इप्टा की शाखाएं 40 स्थानों में काम कर रही हैं। इप्टा में काम करने वाले रंगकर्मी जब भी नाटक उठाते हैं तो यह जरूर देखते हैं कि हम यह नाटक क्यों उठा रहे हैं। इसका क्या उद्देश्य है। ये हमारे काम को कहां तक पंहुचायेगा। कम से कम इतना सोचना तो हर रंगकर्मी के लिये जरूरी है कि वो जो नाटक उठा रहा है वो क्यों उठा रहा है। यदि महज हास्य रस उत्पन्न करने के लिये भी कोई नाटक उठाया जा रहा है तो उसमें कोई बुराई नहीं है पर समझ साफ होना चाहिए। इप्टा की जो इकाईयंां वर्षों से काम कर रही हैं उनके काम में काफी सफाई है। वो नियमित काम भी करती हैं। और काम में विविधता भी है। प्रायः नाटक के अलावा कला के अन्य आयामों और साहित्य के क्षेत्र में भी निरंतर कार्य होता रहता है। मेरी समझ से कोई भी नाटक ऐसा नही है जो केवल इप्टा वाले करते हों। जैसा कि मैंने पहले भी कहा है कि आम तौर पर भारतीय रंग साहित्य विराट मानवीय मूल्यों को समेटता है इसीलिये वो सभी के लिये है। इसमें इप्टा और गैर इप्टा का कोई भेदभाव नहीं है। जिन्हें हम नकारात्मक शक्तियां मानते हैं वो भी कोई नया नाटक नहीं कर पाते। या तो करते ही नहीं या फिर करते हैं तो वही सामान्यतः उपलब्ध प्रचलित नाटक।
भारतीय रंगमंच की दशा और दिशा पर इससे ज्यादा क्या कहा जाये। रंगकर्म हो रहा है। अच्छा हो रहा है। होता रहे और होते रहने के लिये आवश्यक स्थितियां हम पैदा करते रहें तो अच्छी दिशा में होता रहेगा। -हिमांशु राय

मध्यप्रदेश प्रदेश इप्टा शुरूआत से अब तक

मध्यप्रदेश इप्टा का पहला राज्य सम्मेलन रायगढ़ में हुआ था। यह सन् 1982 की बात है। उसके पूर्व से ही अजय आठले और अन्य साथी रायगढ़ में सक्रिय थे। जबलपुर से मैंने इस सम्मेलन में शिरकत की थी। उस पुराने मध्यप्रदेश में से ग्वालियर, भोपाल, रायपुर, जबलपुर, बिलासपुर आदि स्थानों से लोग आए थे। सभी बहुत कम उम्र के थे और किसी के भी साथ कोई लंबा अनुभव नहीं था। ग्वालियर से अपूर्व शिंदे आए थे। भोपाल से मुकेश शर्मा थे। रायपुर से राजकमल नायक आए थे। दस बारह स्थानों से लोग आए थे। इस मायने में यह सम्मेलन बहुत सफल रहा है कि पहली कोशिश में इसे अखिल मध्यप्रदेश का स्वरूप मिल गया।
जबलपुर में विवेचना सन् 1975 से कार्य कर रही है। जब इप्टा मध्यप्रदेश ने काम करना शुरू किया तो जबलपुर की विवेचना ही इप्टा हो गई। जबलपुर में विवेचना चूंकि लगातार सक्रिय थी इसीलिये पूरे मध्यप्रदेश के लिये इसने एक प्रेरणास्त्रोत का कार्य किया। विवेचना जबलपुर में सन् 1975 से नाट्य संस्था के रूप में सक्रिय है। विवेचना के नाटकों और नाट्य दल ने पूरे देश में अपने नाटकों से यश अर्जित किया है। विवेचना का राष्ट्रीय नाट्य समारोह का आयोजन देश में चर्चित है। विवेचना ने जबलपुर में इप्टा का दूसरा प्रादेशिक सम्मेलन 1984 में आयोजित किया था। उस सम्मेलन में श्री पुन्नीसिंह यादव अध्यक्ष व हिमांशु राय महासचिव बनाये गये थे। सन् 1988 में रायपुर में इप्टा का तीसरा सम्मेलन हुआ। इसका उद्घाटन दीना पाठक जी ने किया था। इसमें हिमांशु राय अध्यक्ष व मिनहास असद महासचिव बनाये गये। 9,10,11अक्टूबर 1992 को भोपाल में इप्टा का चैथा राज्य सम्मेलन प्रगतिशील लेखक संघ के सम्मेलन के साथ संयुक्त रूप से आयोजित हुआ। इसमें आबिद अली को महासचिव बनाया गया। संयुक्त मध्यप्रदेश का अंतिम सम्मेलन सन् 1995 में रायगढ़ में आयोजित हुआ था। इसके बाद सात आठ वर्षों के अंतराल के बाद विभाजित मध्यप्रदेश का सम्मेलन अशोकनगर में 2005 में आयोजित हुआ जिसमें हरिओम राजौरिया महासचिव बनाये गये।
ग्वालियर में हालांकि अनेक बार कोशिश हुई पर कभी भी इप्टा की इकाई लगातार सक्रिय नहीं रही। समय समय पर इप्टा के नाम पर काम शुरू तो हुआ पर बढ़ा नहंी। अभी काफी वर्षों बाद अयाज़ खान ने इप्टा के नाम के साथ काम शुरू किया है। वो युवा हैं और प्रशिक्षित हैं। उनसे काफी उम्मीदें हैं।
रायपुर में हमेशा इप्टा की इकाई लगातार काम करती रही है। राजकमल नायक भोपाल चले गये तो भी इप्टा का काम रूका नहंी। आबिद अली, मिनहाज असद, अरूण काठोठे, मोइज कपासी आदि हमेशा सक्रिय रहे हैं। बीच का एक दौर था जब मिर्जा मसूद इप्टा रायपुर में सक्रिय रहे।
भिलाई में तब मजूमदार दादा इप्टा के कर्णधार थे। बाद में उन्होंने इप्टा में काम बंद कर दिया पर जब तक रहे बहुत सक्रिय रहे। विभाष उपाध्याय भी उन दिनों इप्टा में बहुत अच्छा काम करते थे। राजेश श्रीवास्तव मणिमय मुकर्जी इप्टा के प्रमुख सूत्रधार बने। बिलासपुर में इप्टा हमेशा रही है। मधुकर गोरख, ऊषा वैरागकर, अरूण दाभड़कर, सचिन आदि इप्टा को नेतृत्व देते रहे। बिलासपुर में नाटकों के महत्वपूर्ण आयोजन हुए हैं। यहां अनेक सफल नाट्य शिविर आयोजित हुए हैं। बिलासपुर की प्रेरणा से ही बालको में इप्टा सक्रिय हुई और प्रयास इप्टा के नाम से बालको में बिलकुल शुरूआती दौर से आज तक धनाराम साहू के नेतृत्व में इप्टा काम कर रही है। बालकेा में नाटकों और नुक्कड़ नाटकांे के मंचन हमेशा होते रहे हैं। डोंगरगढ़ में काफी वर्षों से राधेश्याम तराने ने इप्टा का गठन किया और एक समर्पित टीम तैयार की। राधेश्याम तराने की जनगीत मंडली और उनका कैसेट हमारी यादों में बसा है। जगदलपुर में विजय सिंह ने एक समय बहुत उत्साह से इप्टा का कार्य शुरू किया। रायपुर में इप्टा के प्रादेशिक सम्मेलन में उनकी प्रस्तुति आज भी याद है। पर यह कार्य अल्पजीवी रहा। विजय सिंह ने ’सूत्र’ के नाम से काम शुरू कर दिया। एक पत्रिका भी निकाली। कांकेर, बचेली आदि में छुटपुट गतिविधियां होती रहीं। एक स्थान बालोद है जहां इप्टा की इकाई की याद इसलिये है कि यहां काम क्या हुआ यह तो नहीं मालूम पर यहां विवाद हमेशा रहा। एक बार तो आबिद अली ने बालोद जाकर भी समझाने का प्रयास किया।
अम्बिकापुर में हमेशा प्रतिपाल सिंह इप्टा का कार्य करते रहे हैं। अम्बिकापुर मंे अनेक शिविर आयोजित किये गये हैं। यहां बहुत से नए पुराने नाटक तैयार हुए। जनगीत मंडली रही। हर प्रादेशिक और राष्ट्रीय सम्मेलन में अम्बिकापुर की शिरकत रही। अम्बिकापुर ने अनेक क्षेत्रीय आंदोलनों में सक्रिय हिस्सेदारी की है। अम्बिकापुर तक रेलपटरी बिछाने की मांग को लेकर किये गये आंदोलन में इप्टा की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। शहडोल में इप्टा का काम तब ही शुरू हुआ जब विजय कुमार नामदेव सक्रिय हुए। उन्होंने इरफान सौरभ का शिविर आयोजित किया। बहुत अच्छी टीम बनी जिसे षडयंत्रपूर्वक तोड़ दिया गया। पर विजय नामदेव ने हिम्मत से लड़ाई लड़ी और एक नई टीम खड़ी कर ली है जिसने ’वान्या’ जैसे नाटक का मंचन किया है। शहडोल इप्टा के प्रयास से अब आसपास के इलाकों में इप्टा के गठन

की प्रक्रिया चालू हो चुकी है। अनूपपुर, कोतमा, उमरिया आदि स्थानों में इप्टा की सुगबुगाहट प्रारंभ हो गई है। रीवां में शुरू से डा विद्याप्रकाश इप्टा को सक्रिय रखे हैं। हनुमंत सिंह और ओम द्विवेदी ने इप्टा रीवां और सतना में अच्छा काम किया है। हनुमंतसिंह ने सतना में ’कालिगुला’ का बहुत अच्छा मंचन किया था। सतना में शशिधर मिश्रा इप्टा का काम शुरू से करते आ रहे हैं। इप्टा मध्यप्रदेश के शुरूआती दौर में मणिमय मुकर्जी, सतीश शर्मा, शरद शर्मा आदि ने सतना में बहुत मेहनत की है। पन्ना में इस समय सतीश शर्मा इप्टा की इकाई का काम देखेते हैं। अभी अभी उन्होंने ’रावण’ नाटक का मंचन किया। कटनी में सुबोध श्रीवास्तव जी के मार्गदर्शन में इप्टा हमेशा कार्य करती रही है। एक समय अनिल खम्परिया ने ’यात्रा’ पत्रिका का नाट्य विशेषांक भी निकाला था। इप्टा कटनी ने अनेक नाट्य प्रदर्शन आयोजित किये हैं। विवेचना जबलपुर को विशेष रूप से कटनी में अनेक बार मंचन हेतु आमंत्रित किया गया। छतरपुर में एकसमय निहाल सिद्दीकी ने काफी समय तक इप्टा की इकाई को सक्रिय रखा। आजकल छतरपुर में शिवेन्द्र शुक्ला और उनके साथी सक्रिय हैं। अनेक नाट्यमंचन और शिविर छतरपुर में आयोजित हो चुके हैं।
भोपाल में तब मुकेश शर्मा सक्रिय थे। जब तक मुकेश भोपाल में रहे भोपाल में इप्टा की इकाई लगातार अपना काम करती रही। भोपाल में मुकेश शर्मा के मुम्बई जाने के बाद इप्टा का काम सुनील शर्मा ने किया। फिर काफी दिनों तक कुछ भी नहीं हुआ। बाद मंे आलोक सक्सेना, शैलेन्द्र शैली और राजीव गोहिल ने बहुत सुव्यवस्थित काम किया। आजकल दिनेश नायर और आलोक सक्सेना इप्टा भोपाल को बहुत अच्छे से चला रहे हैं। इप्टा भोपाल ने ’परिवर्तन’ और ’जायज हत्यार’े जैसे नाटक मंचित किये हैं। इप्टा मध्यप्रदेश के अशोकनगर सम्मेलन के बाद इंदौर मंे इप्टा का गठन हुआ है और उसमें नियमित काम हो रहा है। दतिया में भी इप्टा के लिये बैठक हो चुकी है। अशोकनगर में प्रगतिशील लेखक संघ में बहुत लोग सक्रिय रहे हैं। पंकज दीक्षित के कलात्मक पोस्टर्स विख्यात हैं। अशोकनगर में इप्टा लंबे अर्से से सक्रिय है। इप्टा का नाट्य शिविर, बाल नाट्य शिविर और नाट्य मंचन अशोकनगर में जानेमाने हैं। यही स्थिति गुना में है जहां इप्टा का नाम सुपरिचित है। हरिओम राजौरिया, अनिल दुबे, पंकज दीक्षित आदि अशोकनगर, गुना में निरंतर सक्रिय हैं। होशंगाबाद मंे इप्टा का लंबा इतिहास है। शिवपुरी में इप्टा का गठन राजेन्द्र यादव ने किया था। वहां अनेक कार्यक्रम आयोजित हुए हैं। इकाई में विशेष सक्रियता नहीं है। सागर में एक समय में बहुत अच्छा शिविर लगा। 100 के लगभग छात्र छात्राओं ने हिस्सा लिया पर संगठन बनने से पहले ही बिखर गया।
योगेश दीवान, गोपीकांत घोष, कमलेश सक्सेना आदि ने इप्टा होशंगाबाद का काम शुरू किया। इप्टा ने अनेक नाट्य शिविर और नाट्य मंचन आयोजित किये हैं। सन् 2001 में हिमांशु राय अपनी होशंगाबाद पदस्थापना के दौरान होशंगाबाद, इटारसी में सक्रिय रहे। होशंगाबाद और इटारसी में इस दौरान दो नाट्य समारोह भी आयोजित हुए। इसी समय होशंगाबाद से इप्टावार्ता का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। इटारसी में अनिल झा इप्टा का काम देख रहे है। हरदा में इप्टा की इकाई कई वर्ष पहले बनी थी। हरदा में बहुत अच्छी शुरूआत हुई और अब तक अनेक नाट्य समारोह व नाट्य मंचन आयोजित किये जा चुके हैं। कमलेश सक्सेना ने जाकर हरदा में नाट्य शिविर लगाए और नाटक तैयार करवाए। हरदा जैसी छोटी जगह में दिल्ली और जम्मू जैसी जगहों से अरविंद गौड़ और बलवंत ठाकुर के नाट्य दल आकर मंचन करके गये हैं। संजय तेनगुरिया ने अच्छे निर्देशक और संगठक की भूमिका निभाई है।
सन् 83-84 में परासिया-चांदामेटा में विवेचना के नाट्यदल को आमंत्रित कर नुक्कड़ नाटकों का मंचन हुआ था। तबसे ही इस क्षेत्र में इप्टा की सुगबुगाहट है। बाद मंे परासिया में इप्टा का नाट्य शिविर आयोजित हुआ। छिंदवाड़ा मंे विजयआनंद दुबे नाट्यगंगा व इप्टा के नाम से सक्रिय हैं। छिंदवाड़ा में युवा व समर्पित कलाकारों की अच्छी टीम है। सीमित साधनांे में छिंदवाड़ा में अच्छा कार्य होता है। इन दिनों विनोद विश्वकर्मा छिंदवाड़ा और परासिया में इप्टा का काम कर रहे हैं। अभी अभी परासिया में बाल नाट्य शिविर का सफल आयोजन हुआ। छिंदवाड़ा में दो नाटकों दुलारीबाई और धरती के नीचे इन दो नाटकों का मंचन हुआ। बालाघाट में विनोद विश्वकर्मा की पदस्थापना के दौरान नूतन कला निकेतन ने इप्टा से संबद्धता रखी। बालाधाट में एक समय महेश व्यास और बी मलिक दादा ने इप्टा का गठन किया था। बालाघाट में नाटकांे का अच्छा माहौल है।
इस लेख में याददाश्त के आधार पर तथ्यों का उल्लेख किया है। बहुत से व्यक्तियों के नाम, नाटकों के नाम और घटनाओं का उल्लेख छूट गया है। उनको पूरा संग्रहीत करने पर ही मध्यप्रदेश इप्टा का पूरा इतिहास लिखा जा पायेगा। इस लेख में खासतौर पर नकारात्मक घटनाओं, विवादों का उल्लेख नहीं किया है।
हिमांशु राय