Tuesday, May 12, 2009

हमारा समय कैसा है ?

हमारा समय कैसा है ? हमारे इस समय से हम कितने प्रभावित हैं ? यदि ये समय खराब है तो इसे अच्छा समय बनाने की कोई जद्दोजहद चल रही है क्या ? यदि चल रही है तो क्या हम उसमें शामिल हैं ? या उससे दूर खड़े हैं या उसके विरूद्ध खड़े हैं ? समय के साथ एक खास बात ये है कि ये हमेशा खराब रहता है। हमेशा पहले का समय अच्छा रहता है बल्कि बहुत लोग कहते हैं कि पहले का समय तो स्वर्णयुग था। आज का समय किस धातु का है। आज का समय धातु का न होकर प्लास्टिक और बहुत से रसायनों का है। आज का समय नई नई मोटर कारों मोटर साइकिलों का है। अमेरिका भागते नौजवानों का है। बड़ी बड़ी तनख्वाहों पर बड़े बड़े उद्योगों को सम्हालते और बड़े बड़े मुनाफे कमाते उद्योगपतियों का है। काम के आठ घंटे की अवधारणा की समाप्ति का है। जीवन का आनंद भोगने की अवधारणा की समाप्ति का है। हमारा समय जन्मकुंडलियों, ग्रह दशाओं, वास्तु दोषों का है। ग्रामीण क्षेत्रों में आत्महत्याओं का है। शहरों में हत्याओं का है। धर्मध्वजा फहराते हिंसक जयघोषों का है। चित्र प्रदर्शनियों पर हमले का है। तस्लीमा के बार बार निष्कासन का है। मकबूल फिदा हुसैन के निर्वासन का है। यह समय अंग्रेजी का है। यह समय मातृभाषाओं और लोकभाषाओं की हत्या का है। यह समय सहज देसी आदमी की समाप्ति और एक कृ़ित्रम नकली आदमी के उद्भव का है। यह समय अटाटूट मंहगाई की मार झेल रहे गरीब का है। ये समय अटाटूट कमाई कर रहे कुछ अमीरों का भी है। यह समय छिछोरी फिल्मों और छिछोरे संगीत का है। यह समय शास्त्रीय कलाओं के जीवन संघर्ष का है। यह समय जबरदस्त साम्प्रदायिक तनाव का है। यह समय भयानक जातिवाद और उसके इस्तेमाल का है। यह समय आतंक और आतंक की रोकथाम के लिये किये जा रहे आतंक और अनाचार का है।
यह समय बाल श्रमिकों के शोषण का है। यह समय सभी श्रमिकों को उचित मजदूरी हासिल करने के लिये संघर्ष का है। यह समयगरीब के और गरीब होते जाने का है। यह समय दुनिया और देश को टी वी के माध्यम से देखने का है। कलाओं की दृष्टि से यह इसीलिये खराब समय है क्योंकि कलायें और साहित्य सबकुछ का माध्यम टी वी हो गया है। फिल्म एक बहुत सशक्त माध्यम है पर आजकल उसके अर्थशास्त्र पर कुछ ऐसा साया है कि अंकुर निशंात बनाने वाले श्याम बेनेगलनुमा लोग बहिष्कृत हैं। पहले भी बाजार था। आज भी है पर आज बाजार ही बाजार है। उसके अलावा कुछ नहीं है। इसीलिये अच्छी फिल्में नहीं बनती। अच्छा चैनल शुरू नहीं हो सकता और हो जाये तो चल नहीं सकता। एक तथाकथित टी आर पी है जो हमारा अच्छा देखना सुनना बंद किये दे रहा है। सोचने समझने वालों के लिये कोई चैनल नहीं है। सरकारी चैनल फूहड़ता में प्रतियोगिता करता है। जबकि वो निजी की फूहडता से जीत नहीं सकता। निजी की फूहडता अविजेय है।
जब हम कलाओं, साहित्य और रंगमंच की बात करते हैं तो हम हिन्दी की बात भी करते हैं। उस हिन्दी की बात करते हैं जो बहुत शीघ्र इतिहास की वस्तु होने जा रही है। हिन्दी की हत्या के हम सब साक्षी हैं। हिन्दी ही क्यों सभी देशी और प्रदेशी भाषाओं की हत्या के हम साक्षी हो रहे हैं। जब हम मातृभाषा या अपनी भाषा में काम कर रहे होते हैं तो दरअसल हम एक निष्फल व्यायाम में लगे रहते हैं। हम साहित्य की बात करते हैं। उस साहित्य की बात करते हैं जिसका पाठक वर्ग बेहद सिकुड़ गया है या कहा जाये कि लगभग समाप्त ही हो गया है। जब हम रंगमंच की बात करते हैं तो हम उस रंगमंच की बात करते हैं जिसका दर्शक वर्ग आबादी का बहुत नगण्य हिस्सा है।
आज राज्य संस्कृति के मामले में जितना निष्ठुर है उतना शायद ही कभी रहा हो। आज का उन्मादी समाज कलाओं का जैसा दुश्मन है वैसा शायद ही कभी रहा हो। ऐसे मंे उद्देश्यपूर्ण, सोद्देश्य सार्थक प्रतिबद्ध कलात्मक विचारशील विचारोत्तेजक इत्यादि किस्म के नाटक करना असंभव हो गया है। परसाई जी ने लिखा है कि कबीर अपने समय में काफी बड़े अखाडे़ के खलीफा रहे होंगे वरना हिन्दु मुसलमान दोनांे से दुश्मनी कर रचनाकर्म करना संभव नहीं होता। आज के समय में कबीर का कहीं पुतलादहन होता रहता या फिर वो किसी दूसरे देश में बैठकर राष्ट्र को संदेश दे रहे होते। उनके खिलाफ वारंट होते और हर शहर में मुकदमे दायर होते। सरकार कानून व्यवस्था के प्रति वचनबद्ध होती और हर नागरिक को देश के संविधान के अनुसार अपना जीवन भुगतने के लिये तैयार रहना होता। लोग कहते कि कबीर जी की सरकार रक्षा करे तो गृहमंत्री कहते कि हमारे हाथ संविधान से बंधे हैं। कोई भी आदमी संविधान से ऊपर नहीं है। कबीर अपनी रक्षा स्वयं करें। लिखने में संयम बरतें। सभी की भावनाओं का ख्याल रखें नहीं तो फिर पिटें हम क्या कर सकते हैं।
इन परिस्थितियों में देश में रंगकर्म हो रहा है। जैसा भी हो रहा है। वामपंथ की ऐसी कमर टूटी है कि सारे मजदूर आंदोलन का सत्यानाश हो गया है। वैचारिक तबाही दिल दहला देने वाली है। दर्शन पर बहस की गुंजाइश खत्म होती जा रही है। गरीब आज भी है मगर उसकी गरीबी का कारण बताने वाला कोई नहीं है। गरीब की गरीबी दूर करने का कोई दर्शन सामने नहीं आ रहा। बस गरीब को मरने न देने के लिये कल्याण योजनाओं का अंबार लगा है। आंकड़े दिल दहला देने वाले हैं। 75 - 80 करोड़ लोग 20 रूपये रोज नहीं कमा रहे हैं और फिर भी केवल आत्महत्या कर रहे हैं। किसी की हत्या नहीं कर रहे। 1857 के पहले या बाद में कितने विद्रोह नहीं हुए। पर इतिहास में ये नहीं लिखा है कि अंग्रेजों या औंरंगजेब के अत्याचारों से तंग आकर लाखों लोगों ने आत्महत्या कर ली। आज हर कोई यही बताता रहता है कि किसान आत्महत्या कर रहे हैं। कोई ये नहीं बताता ये लोग मारकर क्यों नहीं मर रहे। ये क्या बदहवासी है?
ये बात संदर्भहीन नहीं है। नाटक करने के पीछे हम लोगों के सामने एक प्रेरणा रहती है। कम से कम एक गलतफहमी तो रहती है कि हम दर्शक को सोचने समझने का मसाला दे रहे हैं। आज के हालात में हम क्या दे पा रहे हैं ? ये विचारों का संकट है। संयुक्त परिवारों में टूटन तो बहुत पहले हो चुकी है अब परिवारों की छोटी छोटी इकाईयां टूट रही हैं। मियां बीवी साथ नहीं रह पा रहे हैं। बहुत नए किस्म की समस्याएं परिवार मंे समाज में और जीवन में आ चुकी हैं। इन पर नाटक में बहुत सीमित काम हो रहा है। साहित्य तो फिर भी अपना काम कर रहा है पर कलाएं अपनी भूमिका नहीं निभा पा रही हैं। कोई उदयशंकर दिखता नहीं है जो नृत्य को हथियार बना दे। नाटक को हथियार बनाने वाले कुछ कारीगर हैं तो पर संख्या बहुत सीमित है। विजय तेंदुलकर जैसा निर्भय और समझौताविहीन नाटककार बहुत दुर्लभ है। नए नाटक कम आ रहे हैं। और बहुत कम हो पा रहे हैं। हमारी आज की सचाई को अभिव्यक्ति दे ऐसे नाटक चाहिये जो नहीं हैं। आज का समय नाटकों में अपनी उपस्थिति मांग रहा है। कुछ कहानी रूपांतर और इक्का दुक्का नाटक ही आए हैं जो हमारे समय को प्रतिबिंबित करते हैं। वरना चहुंओर आज भी अंधा युग और आधेअध्ूारे ही चले जा रहे हैं। आज शांतता कोर्ट चालू आहे, करके किसे सृजन का सुख मिल सकता है। मिलता है तो इसका मायने यही है कि निर्देशक कुछ नया करने का खतरा मोल लेने को तैयार नहीं है।
नाटक दुर्लभ और मंहगा होता जा रहा है। नाटक में भी बाजार की उपस्थिति दिखाई दे रही है जबकि खरीददार नहीं है। मगर बेचनेवाला कह रहा है कि माल बिके नहीं कोई बात नहीं पर सस्ता नहीं किया जायेगा। ये एक अलग किस्म का बाजारवाद है। मगर है। जिस नाटक को आप युगंातरकारी कहते हैं, जिस नाटक को आप श्रेष्ठ कहते हैं। उसका शो नहीं होता। उसका शो कोई करवाना चाहता है तो भी नहीं होता। क्योंकि नाटक का मंचन का खर्च लाखों में पंहुच चुका है। आयोजन करने वाला दे नहीं सकता। सरकारी संस्थान भी नहीं दे सकते। ऐसे श्रेष्ठ नाटक का क्या मायने है।ये तो केवल इतिहास में दर्ज किये जाने के लिये ही तैयार हुए। इसमें काम करने वाले कैसे कलाकार हैं जिन्हें इसका शो करने की कोई ललक नहीं।
हर तरह के नाटक होते है। होते रहते हैं। अच्छे और बुरे। मगर यदि नाटक करने के पीछे समाज को कुछ देने की इच्छा हो तो फिर नाटक को अभिजात्य से जन की ओर तो जाना ही होगा। नाटक को सस्ता जगह जगह खेला जा सकने वाला और सरल बनाना ही होगा। नाटक का दर्शक दिल्ली मुम्बई में नहीं है। जहां दर्शक है वहां पृथ्वी थियेटर और कमानी आडीटोरियम नहीं है। वहां लाखांे का बजट, प्रशिक्षित अभिनेता और रंगसमीक्षक नहीं हैं। वहां सह्ृदय दर्शक है। बहुत कम अपेक्षाओं के साथ नाटक देखने वाला और छोटी छोटी चीजांे को सराहने वाला दर्शक है।
सरकारों के पास संस्कृति के लिये बजट नहीं है। यदि है तो वो हर साल घटता जाता है। नाटक करने वालों की मूल समस्या अनुदान ग्रांट नहीं है। मूल समस्या है रंगमंच। जो है ही नहीं , न उसके बारे में ,उसकी उपयोगिता के बारे में कोई समझ है। हर शहर में एक कला क्षेत्र होना चाहिये जैसे हर शहर में एक स्टेडियम या अस्पताल या सड़क या नाली होती है। जैसे उनकी लागत और आय का अनुपात नहीं देखा जाता वैसे ही कला परिसर का आय और लागत का अनुपात नहीं देखा जाना चाहिये। ये स्थान तो बनाये जाना चाहिये और लगभग मुफ्त में कला प्रदर्शनी, रंगमंच, मुक्ताकाशी रंगमंच बाल रंगमंच फिल्म शो शास्त्रीय व सुगम गायन, वादन, नृत्य व इनके पूर्वाभ्यास के लिये मिलना चाहिये। नवोदित कलाकारों को अच्छे से अच्छा प्रशिक्षण मिलना चाहिये। स्कूलों और कालेजों में नाटक व अन्य कलाओं को पढाया जाना चाहिये। तभी आज के समय मंे रंगकर्म बच पायेगा वरना स्थिति काफी निराशाजनक है। जो कर रहे है वो दरअसल घसीट रहे हैं। जो कर रहे हैं उनके बाद उनका उत्तराधिकारी कोई नहीं है। ये सच है कि समय समय पर कहीं कहीं कोई जुनूनी नौजवान पैदा होकर कुछ दिन अलख जगा देता है पर अपना घर परिवार और रोजगार छोड़कर केवल नाटक करने वालों की पीढ़ी खत्म होती जा रही है। जो कर रहे हैं उनकी हालत लगभग मजबूरी की है। वो न करें तो कहां जायें। ये अनिल भौमिक ही कहां जायें। कभी हिमांशु राय के साथ मिल कर रो लें और फिर सुबह रिहर्सल में चले जायें। जायें तो जायें कहां।

1 Comments:

At August 12, 2009 at 10:55 AM , Blogger ish madhu talwar said...

यह समय मामूली नहीं है...पढिए नंद चतुर्वेदी को....

 

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