Tuesday, May 12, 2009

नाट्य लेखन का समकालीन परिदृश्य

ऐसे अनेक नाट्यलेखक हुए हैं जिनके समय मंे नाटक बहुत कम होते थे। कम से कम वैसे नाटक तो नहीं ही होते थे जैसे वो लिखते थे। फिर भी ऐसे लेखकों ने अनेक नाटक लिखे। इस बात की परवाह नहीं की कि उनका लिखा नाटक मंचित कैसे होगा और उसे कौन मंचित करेगा। जयशंकर प्रसाद ऐसे ही नाट्य लेखक थे। उनके समय में फिल्म आदि का प्रभाव तो नगण्य था। नाटक ही होते थे पर उनके लिखे नाटक तो मंचित नहीं हुए। बरसों बाद बा व कारंथ ने समुद्रगुप्त का मंचन किया और बहुत अच्छे से किया। हालांकि नाटक को मंचन योग्य बनाने के लिये उन्हें बहुत मशक्कत करना पड़ी। फिर भी वा व कारंथ के बाद उन नाटकों का मंचन लगभग नहीं ही हुआ। कारंथ जी का अध्ययन बहुत व्यापक था और वो बहुत डूबकर नाटक मंचित करते थे। उनके नाटक में कर्णप्रिय संगीत एक प्रमुख प्रभावी तत्व हुआ करता था। कारंथ के कारण ही यह कहना संभव हुआ कि जयशंकर प्रसाद के नाटक मंचित किये जा सकते हैं। जयशंकर प्रसाद एक गंभीर लेखक थे और उनके लिये नाटक विचार अभिव्यक्ति का माध्यम मात्र था। उन्हें नाटक के रूप में अपनी कथा को बेहतर विस्तार की संभावना नजर आई और उन्होंने नाटक लिखे।
बहुतेरे लेखकों कवियों के बीच में बहुत कम लेखक नाटक लिखते हैं। अव्वल तो नाटक लिखना तकनीकी तरीके से भी एक कठिन काम है। विचार को पहले कथा में बांधना, फिर कथा को पात्रों मंे बांधना और फिर दृश्य तैयार करना ताकि कथा के उतार चढ़ाव बनते जायें। दृश्य के बीच में भी कथा में तनाव और हास्य के क्षण पैदा करना। चरित्रों को अभिनय और मंच पर गति के लिये पूरा अवसर देना। यह सब किसी भी लेखक के लिये कहानी या कविता लिखने से बहुत अधिक कठिन काम है। इसीलिये लेखक कवि समुदाय में बिरले ही होते हैं जो नाटक लिखते हैं। नाटक लिखने के लिये नाटक से जुड़ना बहुत जरूरी होता है। अव्वल तो उत्तर भारत में जहां के नाट्य परिदृश्य की हम चर्चा कर रहे हैं वहां नाटक बहुत कम मंचित होते हैं। नाट्य संस्थाएं गिनी चुनी हैं। प्रायः होता ये है कि किसी शहर में कोई नौजवान नाटक करने के लिये खड़ा होता है। कलाकारों को जोड़ता है और रिहर्सल शुरू करता है। किसी तरह नाटक तैयार होता है तो उसके मंचन की तैयारी की जाती है। पैसे की व्यवस्था की जाती है। न लाइट की ठीकठाक व्यवस्था होती है न हाॅल की। बहुत मुश्किल से नाटक मंचित होता है और होता है तगड़ा घाटा। इस सबके बीच में नाट्य लेखन कहीं खो जाता है। शहर में कोई लेखक होगा तो वो नाटक देखने नहीं आएगा। आएगा तो नाटक देखकर नाटक लिखने की कोशिश करेगा यह जरूरी नहीं। नया उभरता निर्देशक प्रायः उस नाटक को उठाता है जो उसका देखा हुआ होता है या जिसकी सफलता स्वयंसिद्ध होती है। इसीलिये नए नाटक के लिये गुंजाइश कम हो जाती है। बहुत बार इस तरह के युवा निर्देशक स्वयं का लिखा नाटक करना पसंद करते हैं। बहुत बार इनमें काफी अच्छा लेखन देखने को मिलता है पर प्रचार प्रसार प्रकाशन के अभाव में ये नए नाटक चर्चा में नहीं आ पाते। छिंदवाड़ा कोयला खदानों का इलाका है। यहां के शहरी लड़कों ने कोयला मजदूरों की व्यथा को व्यक्त करते हुए एक नाटक धरती के नीचे का मंचन किया। इसे छिंदवाड़ा के ही एक लेखक ने लिखा था। मंच पर पूरी खदान का सैट बनाया गया था। अति सीमित साधनों में बहुत सी मुश्किलों के बीच यह नाटक मुझे पसंद आया। लेखक से चर्चा हुई। इस नाटक के लिखे जाने की पीछे मूलरूप से लेखक का कलाकारों से जुड़ाव था।
भीष्म साहनी मूलरूप से कहानीकार और उपन्यासकार थे। पर उनकी शुरूआत इप्टा और नाटकों से हुई थी। बाद में वे दिल्ली में नाट्य निर्देशकों और नाट्य संस्थाओं के संपर्क मंे आए। वो रिहर्सल में जाकर बैठा करते थे। कलाकारों और निर्देशक से बातचीत करते थे। इसका परिणाम ये हुआ कि हिन्दी नाट्य जगत को बहुत से अच्छे नाटक मिले। हानूश, माधवी, मुआवजे, कबिरा खड़ा बाजार में आदि उनके वो नाटक हैं जो देश के किसी न किसी शहर में लगातार खेले जाते हैं। उनके नाटकों की खासियत ये है कि वे कालजयी हैं। उनकी विषयवस्तु ऐसी है कि वो हमेशा खेले जायेंगे और हमेशा जीवंत रहेंगे। हानूश सामंतवादी समाज के पूंजीवादी समाज में संक्रमण की कथा है। इसका परिवेश विदेशी है। चेकोस्लोवाकिया में दुनिया की पहली घड़ी बनाई जाती है और व्यापारी वर्ग ये तय करता है कि इसके सहारे हम दुनिया के व्यापार पर कब्जा कर लेंगे। राजा और धर्मगुरू मानते हैं कि इससे पूंजीपतियों का वर्चस्व बढ़ जायेगा। परिणाम ये होता है कि हानूश जिसने घड़ी बनाई है उसकी आंखें फोड़ दी जाती हैं। माधवी प्राचीनकाल से स्त्री की शक्ति, उत्पीड़न और विजय की कथा है। कबिरा खड़ा बाजार में कबीर पर केन्द्रित है। यह एक संगीतमय नाटक है। कबीर अपनी बेबाकी और विचारशील फक्कड़पन के लिये जाने जाते हैं। उनके पूरे जीवन को इस नाटक में प्रस्तुत किया गया है। मुआवजे नाटक समाज में पैसे और उससे जुड़े संबंधों का नाटक है। एक बस्ती में सभी तरह के लोग हैं। इस बीच उनके बीच मंे मुआवजे बांटे जाने की घोषणा होती है। इसके कारण उनके बीच संबंधों का जो संघर्ष शुरू होता है वह एक अच्छे नाटक की रचना करता है।
हमारे देश के प्रमुख निर्देशकों के बीच एक प्रवृत्ति है। वो नए नाटक मंचित करने से बचते हैं। आज भी तीस चालीस साल पुराने नाटक मंचित किये जा रहे हैं। यदि कोई नया निर्देशक असफलता के खतरे से बचने की कोशिश करे तो समझ आता है पर यदि स्थापित निर्देशक भी यही करें तो इससे नए नाटकों के सृजन पर असर पड़ता है। आज भी अंधेर नगरी, अंधा युग, आधे अधूरे, आषाढ का एक दिन लगातार मंचित हो रहे हैं। इस दृष्टि से देखा जाए तो कहानी मंचन अभियान ने हिन्दी नाट्य आंदोलन को सही अर्थाें में मदद की है। हालांकि कहानी मंचन बहुत पहले से हो रहे हैं पर देवेन्द्रराज अंकुर को यह श्रेय जरूर जाता है कि उन्होंने कहानी मंचन को एक अभियान की शक्ल दी। इसका एक परोक्ष परिणाम यह हुआ कि बहुत से कहानीकार ये अपेक्षा रखने लगे हैं कि उनकी कहानी का मंचन हो। यह सुखद संकेत है क्योंकि भविष्य में ये कहानीकार नाटक लिखने के लिये भी आगे आयेंगे। देवेन्द्रराज अंकुर जी ने कहानी मंचनों को इतना रोचक और ग्राह्य बना दिया है कि कहानी मंचन देखना एक निराला अनुभव बन जाता है। संक्रमण, हमसे तुमसे प्यार करेगा कौन, वापसी, उसका बचपन आदि न जाने कितनी कहानियों का मंचन अंकुर जी ने किया है। अब राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के तीनों सालोें के छात्रों के बीच में भी लगातार कहानी मंचन एक शौक की तरह प्रचलित हो गया है। यह एक अच्छा संकेत है। हालांकि बहुत से आलोचक मानते हैं कि कहानी मंचन नाटक नहीं है। नाटक मंचन ही नाटक है। नाटक को मूलरूप से नाटक के रूप में ही लिखा जाना चाहिए। तभी उसका लिखा जाना और मचित किया जाना सार्थक है। इससे सहमत होना और असहमत होना दोनों ही संभव है। पर दर्शक को इस बात से कोई परहेज नहीं है। दर्शक को मंच पर एक अच्छे नाटक की अपेक्षा रहती है जो उसे पूरा रस पूरा आनंद दे।
आज के समय में लगातार नए नाटक आ रहे हैं। मंचित भी हो रहे हैं। पर ये कहा जाता है और लगभग मुहावरे की तरह दोहराया जाता है कि हिन्दी में नाटकों की भारी कमी है। यह बात सच नहीं है। सच बात ये है कि नाटक करने वालों की कमी है और नए नाटक मंचित करने वालों की और ज्यादा कमी है। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की पत्रिका रंगप्रसंग में प्रत्येक अंक मंे एक अच्छा नाटक प्रकाशित होता है। अभी अभी शाहिद अनवर के दो नए नाटक आए हैं। इन नाटकों की भरपूर चर्चा है। इनमें ताजगी है और विषय की रोचकता है। इन दोनों ही नाटकों में विचार है और नाटक के सामान्य लटके झटके नहीं हैं। बी थ्री नौजवानों को लेकर लिखा गया है जिसमें युवा मस्तिष्क को कुंदकर उसे दिमागी तौर पर गुलाम बनाने की प्रक्रिया का चित्रण है। नाटक बिना किसी राजनीति को रेखांकित किये बगैर राजनीति के दुष्प्रभावों को सामने लाता है। नाटक पूरी तरह से समकालीन नाटक है जिसका लंबे अर्से से इंतजार किया जा रहा था। हमारे समाज में जो कट्टरता और असहिष्णुता बढ रही है उसके कार्यकारणों पर नाटक गहराई से बात करता है। दूसरा नाटक हमारे समय में घर में पति पत्नि के बीच में और समाज में मूल्यों की गिरावट पर बात करता है। मुकुल एक ऐसा लड़का है जो बेहद ईमानदार और विचार वान लड़का है। वो अपनी नौकरी में अपने जीवन मूल्यों के कारण परेशानी झेलता है और घर में बैठा दिया जाता है। वो घर में बेरोजगार बैठा है पर अपने मूल्यों से डिगने को तैयार नहीं है। काफी समय तक संघर्ष के बाद एक समय ऐसा आता है जब वो टूटने लगता है। ऐसे समय में उसका एक दोस्त उसे प्रलोभन देता है और पैसा कमाने का अवसर देता है। मुकुल तैयार हो जाता है पर उसकी पत्नि बिफर उठती है। वो कहती है कि मैं जिस मुकुल को चाहती हूं हूं वह सिद्धांतवादी है। यदि उसने अपने सिद्धांत छोड़ दिये तो हमारा संबंध खत्म। नाटक का अंत बहुत रोचक है। शाहिद अनवर ने अपनी एक अलग पहचान बनाई है और उन्हें साहित्य कला परिषद नई दिल्ली का नाट्य लेखन का प्रथम पुरस्कार मिला है।
इस वर्ष इब्सन का जन्म शताब्दी वर्ष होने के कारण इब्सन के कई नाटक प्रकाशित हुए हैं। मास्टर बिल्डर और हेड्डा गेबलर उनके दो महत्वपूर्ण नाटक हैं जो प्रकाशित हुए हैं और जिनका बहुत स्वागत हुआ है। इब्सन का सबसे ज्यादा मंचित नाटक जनशत्रु है जिसके मंचन हमेशा होते रहे हैं। इस दौरान इब्सन के नाटकों पर गोष्ठियां ही ज्यादा हुईं। नाटक कम ही हुए। ऋषिकेश सुलभ के तीन नाटकों की एक किताब अभी आई है। इसका एक नाटक अमली अभी काफी शहरों में मंचित हुआ है। इस वर्ष राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय दिल्ली ने भारतीय रंगकोष प्रकाशित कर एक बड़ा काम किया है। नाटकों की पत्रिका नटरंग अब नियमित प्रकाशित हो रही है। इसमें भी समय समय पर नाटक प्रकाशित होते रहते हैं। पहले के सभी चर्चित नाटक सबसे पहले नटरंग में ही प्रकाशित हुए हैं। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ने रंगप्रसंग पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया है जिसमें नाटकों पर महत्वपूर्ण लेख और चर्चाएं प्रकाशित होती हैं।
कुलमिलाकर यह कहा जा सकता है कि रंगकर्म का समकालीन परिदृश्य अपनी सीमाओं और बाधाओं के बावजूद बहुत संभावनाशील है। आने वाले समय में बहुत अच्छे नाटक लिखे जायेंगे यह विश्वास सहज ही किया जा सकता है। - हिमांशु राय

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