Tuesday, May 12, 2009

वो जज्बा ही कुछ और था

जब मैं छात्र था तो स्टूडेंट फेडरेशन में काम करता था। वहीं समाज को समझने की मेरी ट्रेनिंग हुई। हम लोग छात्रों के बीच तो काम करते ही थे साथ में फैक्ट्री इलाके में जाकर वहां मजदूर आंदोलनों में अपना सहयोग दिया करते थे। कभी कभी पर बहुत कम गांवो मं भी जाना होता था। पर मूलतः हम शहरी ही थे और शहरी मजदूरों के बीच में काम करते थे। हां यह बात जरूर हुई कि इस काम के दौरान ही छात्र जीवन में ही राजनैतिक सामाजिक धार्मिक मुद्दों पर हमारी समझ साफ हुई। हमने जाना कि धार्मिक झगड़े क्यों और कैसे होते हैं। हमने जाना कि जातिवाद की जड़े कितनी गहरी हैं। उनसे निपटना कितना जटिल है। धर्म कितना संवेदनशील मुद्दा है और उस पर बातचीत करते समय कितना सावधान रहने की जरूरत है। जब हमने थियेटर करना शुरू किया तो हमारे एक साथी ने जो आज हिंदी कहानी का प्रमुख नाम है उसने एक रात में पूरा नुक्कड़ नाटक लिखा। उस समय उसकी उम्र 19 साल थी। वो समय ऐसा था जब हम खूब साहित्य पढ़ते थे। उस उम्र में हममें और हमारे साथी छात्रों में ये बहुत बड़ा फर्क था। नुक्कड़ नाटक करने के बाद मंच नाटक की बारी आई तो पहला नाटक हमने गिनी पिग किया। यह नाटक हमारी दृष्टि में बहुत अच्छा था। मंचन भी बहुत अच्छा हुआ था पर दर्शकों के लिये उसमें छिपा संदेश बहुत कठिन था। उसके बाद वेटिंग फार गोदो, फिर इकतारे की आंख, अखाड़े से बाहर आदि नाटक के बाद कहीं जाकर हम सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की बकरी तक पंहुचे। बकरी के मंचन से ही हमने जाना कि नाटक को यदि सीधे दर्शक से जुड़ना हो तो नाटक कैसा होना चाहिये। अनेक नाटक बहुत अच्छे होते हैं पर आम दर्शक पर अपेक्षित प्रभाव नहीं डाल पाते।
इसके बाद एक ऐसा दौर आया कि हमने तीन नुक्कड़ नाटक तैयार किये और फिर हम गली गली और शहर शहर घूमने लगे। हर जगह हमें बुलाया जाता। हमारे नुक्कड़ नाटकों ने खूब समा बांधा। ये नाटक हम क्यों करते थे ? हमें कोई पैसा नहीं मिलता था। हमें मिलता था संतोष। जब हम नाटक कर रहे होते थे तो दर्शकों की प्रक्रिया देखकर हमारे रांेगटे खड़े हो जाते थे। नाटक खतम होने पर हम झोली फैलाते थे तो हमारी झोली पैसों से भर जाती थी। वो पैसा बहुत पवित्र पैसा था। वो दर्शक हमारा जज्बा देखकर देता था और इसीलिये देता था क्योंकि उसे लगता था कि ये लड़के हमारी बात कह रहे हैं ईमानदारी से कह रहे हैं और क्या खूब कह रहे हैं। समय के साथ नुक्कड़ नाटक कम होते गये। देश की परिस्थितियां बदलीं। विदेशों में परिस्थितियां बदलीं। देश में और दुनिया में वामपंथी आंदोलन कमजोर पड़ा तो हमारे हौसले भी पस्त होने लगे।
आज हालात क्या हैं। क्या देश में वास्तव में इतनी खुशहाली आ गई है कि मजदूर आंदोलन की कोई जरूरत नहीं रही। क्या आज गरीब नहीं है। क्या आज भुखमरी बेरोजगारी नहीं हैं। समस्याएं उतनी ही गंभीर हंै पर अब उनके लिये लड़ने वाले घट गये हैं। मजदूर आंदोलन अब भी है पर उसकी राजनैतिक धार खत्म हो गई है। लोकतंत्र ऐसा मजबूत हो गया है कि किसान मजदूर परेशान हैं पर उनके नुमांइदे संसद और विधानसभा में जा नहीं पाते। मध्यवर्ग जो शहरों में लड़ाई लड़ा करता था वो अब घर मंे बैठा टी वी देख रहा है।
नुक्कड़ नाटक जिसकी हम चर्चा कर रहे हैं वो हमेशा शोषित पीड़ितों की लड़ाई में एक सहयोगी के रूप में ही रहा है। आज यदि ये लड़ाई कमजोर पड़ी है तो नुक्कड़ नाटक भी कम हो गये हैं। नुक्कड़ नाटक करने वाले के पीछे जब तक गरीबों शोषितों के लिये लड़ने का जोश नहीं रहेगा तब तक वो प्रभावशाली नहीं होंगे। नुक्कड़ नाटक एक बड़ी लड़ाई का सहयोगी हिस्सा हैं वो स्वयं में किसी लड़ाई को कैसे लड़ सकते हैं। जैसे युद्ध में वायु सेना, नौसेना और थलसेना और फिर इनके सभी विभाग मिलकर लड़ाई लड़ते हैं तब कहीं जाकर लड़ाई पूरी होती है। इसीलिये नुक्कड़ नाटकों को नवजीवन देने और उसे शोषित पीड़ितों की लड़ाई का हथियार बनाना कोई अलग काम नहीं है। देश मे शोषित पीड़ितो की लड़ाई तेज होगी तभी उसमें नुक्कड़ नाटक अपनी भूमिका का निर्वाह कर पायेगा।
आज आम सभाओं और बैठकों का समय नहीं रहा। पर यदि मजदूर अपनी बात गीत गाकर कहता है तो काफी लोगो ंको सुना पाता है। इसी तरह यदि मजदूर दलित शोषित पीड़ित अपनी बात अपने लोगों के बीच में एक नाटक तैयार करके कह पाये तो वो ज्यादा बेहतर तरीका हो सकता है अपनी बात कहने का और उन लोगो को सुनाने का जिन्हें सुनाई जाना है। नुक्कड़ नाटक की खासियत ये है कि ये सीधे संवाद करता है। और जब नुक्कड़ नाटक के द्वारा बात कही जा रही होती है तो उस समय केवल कलाकार की ही बात सुनी जाती है। उसका विरोध नहीं हो पाता। गांवों में लोकगायक, लोककवि और कहीं कहीं कथा गायक अकेले ही ऐसा समा बांधते हैं कि देखते ही बनता है।
हबीब तनवीर के कलाकारों को देखकर हम नुक्कड नाटक में कलात्मकता का विकास देख सकते हैं। नुक्कड़ नाटकों के लिये विचित्र वेशभूषा आदि का इस्तेमाल करके ये कोशिश की गई नाटक कलात्मक दिखे मगर हमेशा ये प्रभावकारी नहीं हुआ। चेहरे को विचित्र मेकअप से सजाया गया पर कितना कारगर हुआ कहा नहीं जा सकता क्योंकि मूल बात ये है कि आप क्या कहना चाहते हैं किसके लिये कहना चाहते हैं और आप कौन हैं। ये सबसे महत्वपूर्ण है। यदि आप उस वर्ग के नहीं हैं तो आपका सारा काम थोपा हुआ और बाहरी लगेगा। नुक्कड़ नाटकों मे प्रायः कथा तत्व नहीं रहता है। मैनें पाया है कि यदि नुक्कड़ नाटक में कोई कथा सूत्र हो तो वो रूचि पैदा करता है। नाटक ज्यादा प्रभावशाली बन पड़ता है। कलाकारों का अभिनय और दर्शकों को बंाधने के लिये स्थानीय गीत संगीत और बोली जरूरी हैं। ये ही नाटक को कलात्मक भी बनाते हैं और प्रभावकारी भी। नुक्कड नाटक नुक्कड़ पर ही हों ये जरूरी नहीं है। यदि किसी शांतिपूर्ण जगह पर हों तो जितने लोग भी देखते हैं वो पूरा नाटक ग्रहण कर पाते हैं। नुक्कड़ नाटक के मंचन स्थल को आकर्षक तरीके से सजाने से भी वो मंच नाटक की अच्छाई को आत्मसात कर पाता है और ज्यादा प्रभावशाली बन पाता है।

1 Comments:

At May 18, 2009 at 8:53 AM , Blogger Randhir Singh Suman said...

srimanji maine bhi student fedretion se rajnit ki suruat ki thi .safar jari hai...................train wahi hai.........aap ka karya accha laga... lokshangharsha.blogspot.com

 

Post a Comment

Subscribe to Post Comments [Atom]

<< Home